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19:14, 21 अक्टूबर 2007 का अवतरण
कैसे नरपिशाच हैं कवि गगन विहारी ।
लाल रक्त की प्यास हैं कवि गगन विहारी ॥
राम नाम वे लुटा रहे, लूट सके तो लूट ।
हि्न्दू जन का विश्वास हैं कवि गगन विहारी ॥
धर्म की ध्वजा उठाए, रक्तपात में लीन ।
जटाधारी की आस हैं कवि गगन विहारी ॥
साम्प्रदायिक विद्वेष बना है संस्कृति का सार ।
तिमिर में प्रकाश हैं कवि गगन विहारी ॥
महाकाल के साथ वे घूमें, ले हिंसा उन्माद ।
जीवन का उच्छवास हैं कवि गगन विहारी ॥
हिन्दू मुस्लिम एकता की बातें बड़ी बड़ी ।
पर मुस्लिमों की लाश हैं कवि गगन विहारी ॥
धर्म ही अब देश हो गया, विधर्मी देशद्रोही ।
भारत का संत्रास हैं कवि गगन विहारी ॥
(2003)