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विप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम।
भीख माँगि भोजन करैं, हिये जपत हरि-नाम॥नाम॥३॥
ताकी घरनी पतिव्रता, गहै वेद की रीति।
सलज सुशील सुबुद्धि अति, पति सेवा सौं प्रीति॥प्रीति॥४॥
कह्यौ सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र।
करत रहति उपदेस गुरु, ऐसो परम विचित्र॥विचित्र॥५॥
लोचन-कमल, दुख मोचन, तिलक भाल,
ओढ़े पीत बसन, गरे में बैजयंती माल,
विद्व नरोत्तम संदीपनि गुरु के पास,
द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पिय,
सिच्छक हौं, सिगरे जग को तिय, ताको कहाँ अब देति है सिच्छा।
जे तप कै परलोक सुधारत, संपति की तिनके नहि इच्छा॥
मेरे हिये हरि के पद-पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा।
औरन को धन चाहिये बावरि, ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा॥भिच्छा॥९॥
कोदों, सवाँ जुरितो भरि पेट, तौ चाहति ना दधि दूध मठौती।
सीत बितीतत जौ सिसियातहिं, हौं हठती पै तुम्हें न हठौती॥
जो जनती न हितू हरि सों तुम्हें, काहे को द्वारिका पेलि पठौती।
या घर ते न गयौ कबहूँ पिय, टूटो तवा अरु फूटी कठौती॥कठौती॥१०॥
छाँड़ि सबै जक तोहि लगी बक, आठहु जाम यहै झक ठानी।
जातहि दैहैं, लदाय लढ़ा भरि, लैहैं लदाय यहै जिय जानी॥
पाँउ कहाँ ते अटारि अटा, जिनको विधि दीन्हि है टूटि सी छानी।
जो पै दरिद्र लिखो है ललाट तौ, काहु पै मेटि न जात अयानी॥अयानी॥१३॥
विप्र के भगत हरि जगत विदित बंधु,
पढ़े एक चटसार कही तुम कैयो बार,
एक दीनबंधु कृपासिंधु फेरि गुरुबंधु,
नाम लेते चौगुनी, गये तें द्वार सौगुनी सो,
द्वारिका जाहु जू द्वारिका जाहु जू, आठहु जाम यहै झक तेरे।
जौ न कहौ करिये तो बड़ौ दुख, जैये कहाँ अपनी गति हेरे॥
द्वार खरे प्रभु के छरिया तहँ, भूपति जान न पावत नेरे।
पाँच सुपारि तै देखु बिचार कै, भेंट को चारि न चाउर मेरे॥मेरे॥२३॥
यह सुनि कै तब ब्राह्मनी, गई परोसी पास।
पाव सेर चाउर लिये, आई सहित हुलास॥हुलास॥२४॥
सिद्धि करी गनपति सुमिरि, बाँधि दुपटिया खूँट।
माँगत खात चले तहाँ, मारग वाली बूट॥बूट॥२५॥
दीठि चकचौंधि गई देखत सुबर्नमई,
पूछे बिन कोऊ कहूँ काहू सों न करे बात,
देखत सुदामा धाय पौरजन गहे पाँय,
धीरज अधीर के हरन पर पीर के,
सीस पगा न झगा तन में प्रभु, जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।
धोति फटी-सी लटी दुपटी अरु, पाँय उपानह की नहिं सामा॥
द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एक, रह्यौ चकिसौं वसुधा अभिरामा।
पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥सुदामा॥II३५II
बोल्यौ द्वारपाल सुदामा नाम पाँड़े सुनि,
द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाँय,
नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि,
जैसी तुम करौ तैसी करै को कृपा के सिंधु,
ऐसे बेहाल बेवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये।
हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये॥
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये॥II४२II
कछु भाभी हमको दियौ, सो तुम काहे न देत।
चाँपि पोटरी काँख में, रहे कहौ केहि हेत॥हेत॥II ४६II
आगे चना गुरु-मातु दिये त, लिये तुम चाबि हमें नहिं दीने।
श्याम कह्यौ मुसुकाय सुदामा सों, चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने॥
पोटरि काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा-रस भीने।
पाछिलि बानि अजौं न तजी तुम, तैसइ भाभी के तंदुल कीने॥II४७II
देनो हुतौ सो दै चुके, बिप्र न जानी गाथ।
चलती बेर गोपाल जू, कछू न दीन्हौं हाथ॥हाथ॥II ६०II
वह पुलकनि वह उठ मिलनि, वह आदर की भाँति।
यह पठवनि गोपाल की, कछू ना जानी जाति॥जाति॥II६१II
घर-घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज।
कहा भयौ जो अब भयौ, हरि को राज-समाज॥समाज॥II६२II
हौं कब इत आवत हुतौ, वाही पठ्यौ ठेलि।
कहिहौं धनि सौं जाइकै, अब धन धरौ सकेलि॥सकेलि॥II६३II
वैसेइ राज-समाज बने, गज-बाजि घने, मन संभ्रम छायौ।
वैसेइ कंचन के सब धाम हैं, द्वारिके के महिलों फिरि आयौ।
भौन बिलोकिबे को मन लोचत सोचत ही सब गाँव मँझायौ।
पूछत पाँड़े फिरैं सबसों पर झोपरी को कहूँ खोज न पायौ॥पायौ॥II७०II
कनक-दंड कर में लिये, द्वारपाल हैं द्वार।
जाय दिखायौ सबनि लैं, या है महल तुम्हार॥तुम्हार॥II७३II
टूटी सी मड़ैया मेरी परी हुती याही ठौर,
जेवर-जराऊ तुम साजे प्रति अंग-अंग,
तुम तो पटंबर री ओढ़े किनारीदार,
मेरी वा पंडाइन तिहारी अनुहार ही पै,
कै वह टूटि-सि छानि हती कहाँ, कंचन के सब धाम सुहावत।
कै पग में पनही न हती कहँ, लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
भूमि कठोर पै रात कटै कहाँ, कोमल सेज पै नींद न आवत।
कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभु, के परताप तै दाख न भावत॥II११९II
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