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हर बार | हर बार |
04:11, 21 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
हर बार
शब्द होठों पर आकर लौट जाते हैं
कितने निर्जीव और अर्थहीन हो उठते हैं
हमारे आपसी सम्बन्ध,
एक ठण्डा मौन जमने लगता है
हमारी साँसों में
और बेजान-सी लगने लगती हैं
आँखों की पुतलियाँ !
कितनी उदास और
अनमनी हो उठती हो तुम एकाएक
कितनी भाव-शून्य अपने एकान्त में,
हमने जब भी आंगन से बात उठाई
चीज़ों को टकराकर टूटने से
रोक नहीं पाए
न तुम अपने खोने का कारण जान सकी
न मैं अपनी नाकामी का आधार !
तुम्हें ख़ुश देखने की ख़्वाहिश में
मैं दिन-रात उसी जंगल में जूझता रहा
और तुम घर में ऊबती रहीं लगातार
गुज़रते हुए वक़्त के साथ
तुम्हारे सवाल और शिकायतें बढ़ती रहीं
और मैं खोता रहा हर बार
अपने शब्दों की सामर्थ्य में विश्वास !