"कलातीर्थ / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर
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'''कला-तीर्थ''' | '''कला-तीर्थ''' | ||
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पूर्णचन्द्र-चुम्बित निर्जन वन, | पूर्णचन्द्र-चुम्बित निर्जन वन, | ||
विस्तृत शैल प्रान्त उर्वर थे; | विस्तृत शैल प्रान्त उर्वर थे; | ||
− | + | मसृण, हरित, दूर्वा-सज्जित पथ, | |
वन्य कुसुम-द्रुम इधर-उधर थे। | वन्य कुसुम-द्रुम इधर-उधर थे। | ||
− | ::पहन | + | ::पहन शुक्र का कर्ण-विभूषण |
::दिशा-सुन्दरा रूप-लहर से | ::दिशा-सुन्दरा रूप-लहर से | ||
::मुक्त-कुन्तला मिला रही थी | ::मुक्त-कुन्तला मिला रही थी | ||
::अवनी को ऊँचे अम्बर से। | ::अवनी को ऊँचे अम्बर से। | ||
− | कला-तीर्थ को मैं | + | कला-तीर्थ को मैं जाता था |
एकाकी वनफूल-नगर में, | एकाकी वनफूल-नगर में, | ||
सहसा दीख पड़ी सोने की | सहसा दीख पड़ी सोने की | ||
पंक्ति 32: | पंक्ति 32: | ||
ढुलक रहे जल-कण पुरइन में, | ढुलक रहे जल-कण पुरइन में, | ||
हलके यौवन थिरक रहा था | हलके यौवन थिरक रहा था | ||
− | ओस-कणों-सा गान- | + | ओस-कणों-सा गान-पवन में। |
::मैंने कहा, "कौन तुम वन में | ::मैंने कहा, "कौन तुम वन में | ||
::रूप-कोकिला बन गाती हो, | ::रूप-कोकिला बन गाती हो, | ||
::इस वसन्त-वन के यौवन पर | ::इस वसन्त-वन के यौवन पर | ||
− | ::निज यौवन-रस | + | ::निज यौवन-रस बरसाती हो?’ |
− | वह बोली, " | + | वह बोली, "क्या नहीं जानते? |
− | मैं | + | मैं सुन्दरता चिर-सुकुमारी, |
अविरत निज आभा से करती | अविरत निज आभा से करती | ||
आलोकित जगती की क्यारी। | आलोकित जगती की क्यारी। | ||
::मैं अस्फुट यौवन का मधु हूँ, | ::मैं अस्फुट यौवन का मधु हूँ, | ||
− | :: | + | ::मदभरी, रसमयी, नवेली |
::प्रेममयी तरुणी का दृग-मद, | ::प्रेममयी तरुणी का दृग-मद, | ||
− | :: | + | ::कवियों की कविता अलबेली। |
वृन्त-वृन्त पर मैं कलिका हूँ, | वृन्त-वृन्त पर मैं कलिका हूँ, | ||
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क्षितिज छोड़कर मध्य गगन में, | क्षितिज छोड़कर मध्य गगन में, | ||
पर, देखूँ कैसे उसकी छवि? | पर, देखूँ कैसे उसकी छवि? | ||
− | कहीं, हार | + | कहीं, हार हो जाय न रण में! |
::कुछ दूरी चल उस निर्जन में | ::कुछ दूरी चल उस निर्जन में | ||
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::मैंने कहा, ‘कौन तुम?’ बोला, | ::मैंने कहा, ‘कौन तुम?’ बोला, | ||
− | ::वह, " | + | ::वह, "कर्तव्य, सत्य का प्यारा। |
::उपवन को सींचने लिए | ::उपवन को सींचने लिए | ||
::जाता हूँ यह निर्झर की धारा। | ::जाता हूँ यह निर्झर की धारा। | ||
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::बाधाएँ घेरतीं मुझे, पर, | ::बाधाएँ घेरतीं मुझे, पर, | ||
::मैं निर्भय नित मुसकाता हूँ। | ::मैं निर्भय नित मुसकाता हूँ। | ||
− | ::कुचल | + | ::कुचल कुलिश-कंटक-जालों को, |
::लक्ष्य-ओर बढ़ता जाता हूँ। | ::लक्ष्य-ओर बढ़ता जाता हूँ। | ||
पंक्ति 137: | पंक्ति 137: | ||
::वह तर हुआ कर्म में अपने, | ::वह तर हुआ कर्म में अपने, | ||
− | ::मैं श्रम-शिथिल बढ़ा | + | ::मैं श्रम-शिथिल बढ़ा निज पथ पर। |
− | ::"सुंदरता | + | ::"सुंदरता या सत्य श्रेष्ठ है?" |
− | + | ::उठने लगा द्वन्द्व पग-पग पर। | |
सुन्दरता आनन्द-मूर्ति है, | सुन्दरता आनन्द-मूर्ति है, | ||
− | प्रेम- | + | प्रेम-नदी मोहक, मतवाली। |
− | कर्म-कुसुम के बिना | + | कर्म-कुसुम के बिना किन्तु, क्या |
भर सकती जीवन की डाली? | भर सकती जीवन की डाली? | ||
पंक्ति 151: | पंक्ति 151: | ||
::एकाकी कर्त्तव्य-नगर से। | ::एकाकी कर्त्तव्य-नगर से। | ||
− | [३] | + | :::::[३] |
− | कुछ क्षण बाद मिला | + | कुछ क्षण बाद मिला फिर पथ में |
गंध-फूल-दूर्वामय प्रान्तर। | गंध-फूल-दूर्वामय प्रान्तर। | ||
हरी-भरी थी शैल-तटी, त्यों, | हरी-भरी थी शैल-तटी, त्यों, | ||
− | सघन रत्न- | + | सघन रत्न-भूषित नीलाम्बर। |
::दूबों की नन्हीं फुनगी पर | ::दूबों की नन्हीं फुनगी पर | ||
पंक्ति 163: | पंक्ति 163: | ||
राशि-राशि वन-फूल खिले थे, | राशि-राशि वन-फूल खिले थे, | ||
− | पुलकस्पन्दित वन-हृत्- | + | पुलकस्पन्दित वन-हृत्-शतदल; |
दूर-दूर तक फहर रहा था | दूर-दूर तक फहर रहा था | ||
श्यामल शैलतटी का अंचल। | श्यामल शैलतटी का अंचल। | ||
पंक्ति 169: | पंक्ति 169: | ||
::एक बिन्दु पर मिले मार्ग दो | ::एक बिन्दु पर मिले मार्ग दो | ||
::आकर दो प्रतिकूल विजन से; | ::आकर दो प्रतिकूल विजन से; | ||
− | :: | + | ::संगम पर था भवन कला का |
::सुन्दर घनीभूत गायन-से। | ::सुन्दर घनीभूत गायन-से। | ||
पंक्ति 185: | पंक्ति 185: | ||
जिधर अमर छवि लहराती है; | जिधर अमर छवि लहराती है; | ||
उधर सत्य की प्रभा प्रेम बन | उधर सत्य की प्रभा प्रेम बन | ||
− | + | बेसुध - सी दौड़ी जाती है। | |
::प्रेमाकुल जब हृदय स्वयं मिट | ::प्रेमाकुल जब हृदय स्वयं मिट | ||
पंक्ति 191: | पंक्ति 191: | ||
::दर्शन देता उसे स्वयं तब | ::दर्शन देता उसे स्वयं तब | ||
::सुन्दर बनकर सत्य निरामय।" | ::सुन्दर बनकर सत्य निरामय।" | ||
− | + | ::: *** *** *** | |
देखा, कवि का स्वप्न मधुर था, | देखा, कवि का स्वप्न मधुर था, | ||
उमड़ी अमिय धार जीवन में; | उमड़ी अमिय धार जीवन में; | ||
पूर्णचन्द्र बन चमक रहे थे | पूर्णचन्द्र बन चमक रहे थे | ||
− | + | ‘शिव-सुन्दर’ ‘आनन्द’-गगन में। | |
::मानवता देवत्व हुई थी, | ::मानवता देवत्व हुई थी, | ||
पंक्ति 202: | पंक्ति 202: | ||
::कला-तीर्थ में आज मिला था | ::कला-तीर्थ में आज मिला था | ||
::महा सत्य भावुक सुन्दर से। | ::महा सत्य भावुक सुन्दर से। | ||
− | + | :::: * | |
− | फूँक दे जो | + | फूँक दे जो प्राण में उत्तेजना, |
गुण न वह इस बाँसुरी की तान में। | गुण न वह इस बाँसुरी की तान में। | ||
जो चकित करके कँपा डाले हृदय, | जो चकित करके कँपा डाले हृदय, | ||
पंक्ति 220: | पंक्ति 220: | ||
देख क्षण-क्षण मैं सहमता हूँ अरे, | देख क्षण-क्षण मैं सहमता हूँ अरे, | ||
− | व्यापिनी निस्सारता | + | व्यापिनी निस्सारता संसार की, |
− | एक पल | + | एक पल ठहरे जहाँ जग ही अभय, |
खोज करता हूँ उसी आधार की। | खोज करता हूँ उसी आधार की। | ||
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17:43, 28 फ़रवरी 2011 का अवतरण
कला-तीर्थ
[१]
पूर्णचन्द्र-चुम्बित निर्जन वन,
विस्तृत शैल प्रान्त उर्वर थे;
मसृण, हरित, दूर्वा-सज्जित पथ,
वन्य कुसुम-द्रुम इधर-उधर थे।
पहन शुक्र का कर्ण-विभूषण
दिशा-सुन्दरा रूप-लहर से
मुक्त-कुन्तला मिला रही थी
अवनी को ऊँचे अम्बर से।
कला-तीर्थ को मैं जाता था
एकाकी वनफूल-नगर में,
सहसा दीख पड़ी सोने की
हंसग्रीव नौका लघु सर में।
पूर्णयौवना, दिव्य सुन्दरी
जिस पर बीन लिए निज कर में
भेद रही थी विपिन-शून्यता
भर शत स्वर्गों का मधु स्वर में।
लहरें खेल रहीं किरणों से,
ढुलक रहे जल-कण पुरइन में,
हलके यौवन थिरक रहा था
ओस-कणों-सा गान-पवन में।
मैंने कहा, "कौन तुम वन में
रूप-कोकिला बन गाती हो,
इस वसन्त-वन के यौवन पर
निज यौवन-रस बरसाती हो?’
वह बोली, "क्या नहीं जानते?
मैं सुन्दरता चिर-सुकुमारी,
अविरत निज आभा से करती
आलोकित जगती की क्यारी।
मैं अस्फुट यौवन का मधु हूँ,
मदभरी, रसमयी, नवेली
प्रेममयी तरुणी का दृग-मद,
कवियों की कविता अलबेली।
वृन्त-वृन्त पर मैं कलिका हूँ,
मैं किसलय-किसलय पर हिमकण।
फूल-फूल पर नित फिरती हूँ,
दीवानी तितली-सी बन-वन।
प्रेम-व्यथा के सिवा न दुख है,
यहाँ चिरन्तन सुख की लाली।
इस सरसी में नित म्राल के
संग विचर्ती सुखी मराली।
लगा लालसा-पंख मनोरम,
आओ, इस आनन्द-भवन में,
जी-भर पी लो आज अधर-रस,
कल तो आग लगी जीवन में।"
यौवन ऋषा! प्रेम ! आकर्षण!
हाँ, सचमुच, तरुणी मधुमय है,
इन आँखों में अमर-सुधा है,
इन अधरों में रस-संचय है।
मैंने देखा और दिनों से,
आज कहीं मादक था हिमकर,
उडुओं की मुस्कान स्पष्ट थी,
विमल व्योम स्वर्णाभ सरोवर।
लहर-लहर में कनक-शिखाएँ
झिलमिल झलक रहीं लघु सर में,
कला-तीर्थ को मैं जाता था,
एकाकी सौन्दर्य-नगर में।
[२]
बढ़ा और कुछ दूर विपिन में,
देखा पथ संकीर्ण सघन है,
दूब, फूल, रस, गंध न किंचित,
केवल कुलिश और पाहन है।
झुर्मुट में छिप रहा पंथ,
ऊँचे-नीचे पाहन बिखरे हैं।
दुर्गम पथ, मैं पथिक अकेला,
इधर-उधर बन-जन्तु भरे हैं।
कोमल-प्रभ चढ़ रहा पूर्ण विधु
क्षितिज छोड़कर मध्य गगन में,
पर, देखूँ कैसे उसकी छवि?
कहीं, हार हो जाय न रण में!
कुछ दूरी चल उस निर्जन में
देखा एक युवक अति सुन्दर
पूर्णस्वस्थ, रक्ताभवदन, विकसित,
प्रशस्त-उर, परम मनोहर।
चला रहा फावड़ा अकेला
पोंछ स्वेद के बहु कण कर से,
नहर काटता वह आता था
किसी दूरवाही निर्झर से।
मैंने कहा, ‘कौन तुम?’ बोला,
वह, "कर्तव्य, सत्य का प्यारा।
उपवन को सींचने लिए
जाता हूँ यह निर्झर की धारा।
मैं बलिष्ठ आशा का सुत हूँ,
बिहँस रहा नित जीवन-रण में;
तंद्रा, अलस मुझे क्यों घेरें?
मैं अविरत तल्लीन लगन में।
बाधाएँ घेरतीं मुझे, पर,
मैं निर्भय नित मुसकाता हूँ।
कुचल कुलिश-कंटक-जालों को,
लक्ष्य-ओर बढ़ता जाता हूँ।
डरो नहीं पथ के काँटों से,
भरा अमित आनन्द अजिर में।
यहाँ दुःख ही ले जाता है
हमें अमर सुख के मन्दिर में।
सुन्दरता पर कभी न भूलो,
शाप बनेगी वह मीवन में।
लक्ष्य-विमुख कर भटकायेगी,
तुम्हें व्यर्थ फूलों के वन में।
बढ़ो लक्ष्य की ओर, न अटको,
मुझे याद रख जीवन-रण में।"
उसके इस आतिथ्य-भाव से
व्यथा हुई कुछ मेरे मन में।
वह तर हुआ कर्म में अपने,
मैं श्रम-शिथिल बढ़ा निज पथ पर।
"सुंदरता या सत्य श्रेष्ठ है?"
उठने लगा द्वन्द्व पग-पग पर।
सुन्दरता आनन्द-मूर्ति है,
प्रेम-नदी मोहक, मतवाली।
कर्म-कुसुम के बिना किन्तु, क्या
भर सकती जीवन की डाली?
सत्य सोंचता हमें स्वेद से,
सुन्दरता मधु-स्वप्न-लहर से।
कला-तीर्थ को मैं जाता था
एकाकी कर्त्तव्य-नगर से।
[३]
कुछ क्षण बाद मिला फिर पथ में
गंध-फूल-दूर्वामय प्रान्तर।
हरी-भरी थी शैल-तटी, त्यों,
सघन रत्न-भूषित नीलाम्बर।
दूबों की नन्हीं फुनगी पर
जगमग ओस बने आभा-कण;
कुसुम आँकते उनमें निज छवि,
जुगनू बना रहे निज दर्पण।
राशि-राशि वन-फूल खिले थे,
पुलकस्पन्दित वन-हृत्-शतदल;
दूर-दूर तक फहर रहा था
श्यामल शैलतटी का अंचल।
एक बिन्दु पर मिले मार्ग दो
आकर दो प्रतिकूल विजन से;
संगम पर था भवन कला का
सुन्दर घनीभूत गायन-से।
अमित प्रभा फैला जलता था
महाज्ञान-आलोक चिरन्तन,
दीवारों पर स्वर्णांकित था,
"सत्य भ्रमर, सुन्दरता गुंजन।
प्रखर अजस्त्र कर्मधारा के
अन्तराल में छिप कम्पन-सी
सुन्दरता गुंजार कर रही
भावों के अंतर्गायन-सी।
प्रेम सत्य की प्रथ प्रभा है,
जिधर अमर छवि लहराती है;
उधर सत्य की प्रभा प्रेम बन
बेसुध - सी दौड़ी जाती है।
प्रेमाकुल जब हृदय स्वयं मिट
हो जाता सुन्दरता में लय,
दर्शन देता उसे स्वयं तब
सुन्दर बनकर सत्य निरामय।"
*** *** ***
देखा, कवि का स्वप्न मधुर था,
उमड़ी अमिय धार जीवन में;
पूर्णचन्द्र बन चमक रहे थे
‘शिव-सुन्दर’ ‘आनन्द’-गगन में।
मानवता देवत्व हुई थी,
मिले प्राण आनन्द अमर से।
कला-तीर्थ में आज मिला था
महा सत्य भावुक सुन्दर से।
*
फूँक दे जो प्राण में उत्तेजना,
गुण न वह इस बाँसुरी की तान में।
जो चकित करके कँपा डाले हृदय,
वह कला पाई न मैंने गान में।
जिस व्यथा से रो रहा आकाश यह,
ओस के आँसू बहाकर फूल में,
ढूँढती उसकी दवा मेरी कला
विश्व-वैभव की चिता की धूल में।
कूकती असहाय मेरी कल्पना
कब्र में सोये हुओं के ध्यान में,
खंडहरों में बैठ भरती सिसकियाँ
विरहिणी कविता सदा सुनसान में।
देख क्षण-क्षण मैं सहमता हूँ अरे,
व्यापिनी निस्सारता संसार की,
एक पल ठहरे जहाँ जग ही अभय,
खोज करता हूँ उसी आधार की।