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"पनघटों पर धूल / हरीश निगम" के अवतरणों में अंतर
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लगते नहीं हैं | लगते नहीं हैं | ||
गाँव से! | गाँव से! |
20:46, 8 मार्च 2011 का अवतरण
थोड़ा अपना वज़न घटाओ
भइया बस्ते जी।
हम बच्चों का साथ निभाओ
भइया बस्ते जी।
गुब्बारे से फूल रहे तुम
भरे हाथी से,
कुछ ही दिन में नहीं लगोगे
मेरे साथी से।
फिर क्यों ऐसा रोग लगाओ
भइया बस्ते जी।
कमर हमारी टूट रही है
कांधे दुखते हैं,
तुमको लेकर चलते हैं कम
ज़्यादा रूकते हैं।
कुछ तो हम पर दया दिखाओ
भइया बस्ते जी।
लगते नहीं हैं गाँव से!
पनघटों में धूल सूने खेत घूमते अमराइयों में प्रेत, आ रही लू, नीम वाली छाँव से!
ठूँठ अपनापन झरे मन-पात कोयलों पर बाज की है घात, धूप के हैं थरथराते पाँव से!
खाँसते आँगन हवा में टीस कब्र में डूबे घुने आशीष, लोग हैं हारे हुए हर दाँव से। </poem>