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+ | तुलसी चातक प्रेमपट मरतहुँ लगी न खोंच।302। | ||
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+ | अंड फोरि कियो चेटुवा तुष पर्यो नीर निहारि। | ||
+ | गहि चंगुल चातक चतुर डार्यो बाहिर बारि।।303। | ||
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+ | तुलसी चातक देति सिख सुतहिं बारहीं बार। | ||
+ | तात न तर्पन कीजिऐ बिना बारिधर धार।304। | ||
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+ | जिअत न नाई नारि चातक घन तजि दूसरहि। | ||
+ | सुरसरिहू को बारि मरत माँगेउ अरध जल।305। | ||
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+ | सुनु रे तुलसीदस प्यास पपीहहि प्रेम की। | ||
+ | परिहरि चारिउ मास जो अँचवै जल स्वाति को।306। | ||
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+ | जाचै बारह मास पिऐ पपीहा स्वाति जल । | ||
+ | जान्यों तुलसीदास जोगवत नेेही नेह मन।307। | ||
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+ | तुलसीं के मत चातकहि केवल प्रेम पिआस । | ||
+ | पिअत स्वाति जल जान जग जाँचत बाारह मास।308। | ||
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+ | आलबाल मुकुताहलनि हिय सनेह तरू मूल। | ||
+ | होइ हेतु चित चातकहि स्वाति सलिलु अनुकूल।309। | ||
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+ | उष्न काल अरू देह खिन मग पंथी तन ऊख। | ||
+ | चातक बतियाँ न रूचीं अन जल सींचे रूख।310। | ||
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12:57, 17 मार्च 2011 के समय का अवतरण
दोहा संख्या 301 से 310
चरग चंगु गत चातकहि नेम प्रेम की पीर ।
तुलसी परबस हाड़ पर परिहैं पुहुमी नीर।301।
बध्यो बधिक पर्यो पुन्य जल उलटि उठाई चोंच।
तुलसी चातक प्रेमपट मरतहुँ लगी न खोंच।302।
अंड फोरि कियो चेटुवा तुष पर्यो नीर निहारि।
गहि चंगुल चातक चतुर डार्यो बाहिर बारि।।303।
तुलसी चातक देति सिख सुतहिं बारहीं बार।
तात न तर्पन कीजिऐ बिना बारिधर धार।304।
जिअत न नाई नारि चातक घन तजि दूसरहि।
सुरसरिहू को बारि मरत माँगेउ अरध जल।305।
सुनु रे तुलसीदस प्यास पपीहहि प्रेम की।
परिहरि चारिउ मास जो अँचवै जल स्वाति को।306।
जाचै बारह मास पिऐ पपीहा स्वाति जल ।
जान्यों तुलसीदास जोगवत नेेही नेह मन।307।
तुलसीं के मत चातकहि केवल प्रेम पिआस ।
पिअत स्वाति जल जान जग जाँचत बाारह मास।308।
आलबाल मुकुताहलनि हिय सनेह तरू मूल।
होइ हेतु चित चातकहि स्वाति सलिलु अनुकूल।309।
उष्न काल अरू देह खिन मग पंथी तन ऊख।
चातक बतियाँ न रूचीं अन जल सींचे रूख।310।