पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर ।
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर ।1।।
अब ज़िंदगी के साथ ज़माना बदल गया ।, पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर ।2।।
कल मयक़दे में चेक दिखाया था आपका ।, वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर ।3।।
शायर को सौ रुपए तो मिलें जब ग़ज़ल छपे ।, हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर ।4।।
लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप ।,शी! होंठ सिल के बैठ गए ,लीजिए हुजूर ।5।।
जब आपका ग़ज़ल में हमें ख़त मिला हुज़ूर ।
पढ़ते ही यक-ब-यक ये कलेजा हिला हुज़ूर ।1।।
ये "धर्मयुग" हमारा नहीं सबका पत्र है ।, हम घर के आदमी हैं हमीं से गिला हुज़ूर ।2।।
भोपाल इतना महँगा शहर तो नहीं कोई ।, महँगी का बाँधते हैं हवा में किला हुज़ूर ।3।।
पारिश्रमिक का क्या है बढ़ा देंगे एक दिन ।,पर तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुज़ूर ।4।।
शायर को भूख ने ही किया है यहाँ अज़ीम ।, हम तो जमा रहे थे यही सिलसिला हुज़ूर ।5।।
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