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"नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर
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उठी सँभाल बाल,मुख-लट,पट,दीप बुझा,हँस बोली | उठी सँभाल बाल,मुख-लट,पट,दीप बुझा,हँस बोली | ||
रही यह एक ठठोली। | रही यह एक ठठोली। | ||
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12:11, 20 मार्च 2011 का अवतरण
नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे,खेली होली !
जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली,
दीपित दीप ,कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली-
मली मुख-चुम्बन-रोली।
प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गयी चोली,
एक-वसन रह गयी मन्द हँस अधर -दशन अनबोली-
कली -सी काँटे की तोली।
मधु-ऋतु-रात,मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली,
खुले अलक,मुँद गये पलक-दल,श्रम-सुख की हद हो ली-
बनी रति की छवि भोली।
बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल,मुख-लट,पट,दीप बुझा,हँस बोली
रही यह एक ठठोली।
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की यह कविता 'जागरण' ,पाक्षिक,काशी,22मार्च 1932 को 'होली' शीर्षक से छपी थी ।