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<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png|middle]]</td>
<td rowspan=2> <font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
<td> '''शीर्षक : घोटाले करने की शायद दिल्ली को बीमारी हैनयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे, खेली होली !<br> '''रचनाकार:''' [[सिराज फ़ैसल ख़ानसूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"]]</td>
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घोटाले करने की शायद दिल्ली को बीमारी हैनयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे, खेली होली !रपट लिखाने मत जाना तुम ये धंधा सरकारी है जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली,दीपित दीप, कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली- मली मुख-चुम्बन-रोली ।
तुमको पत्थर मारेंगे सब रुसवा तुम हो जाओगेप्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,मुझसे मिलने मत आओ मुझपे फतवा जारी है एक-वसन रह गई मन्द हँस अधर-दशन अनबोली- कली-सी काँटे की तोली ।
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आपस में सब भाई हैं मधु-ऋतु-रात,मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली,इस चक्कर मेँ मत पड़िएगा ये दावा अख़बारी है खुले अलक, मुँद गए पलक-दल, श्रम-सुख की हद हो ली- बनी रति की छवि भोली ।
भारतवासी कुछ दिन से रूखी रोटी खाते हैं बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,पानी पीकर जीते हैं महँगी सब तरकारी है । जीना है तो झूठ भी बोलो घुमाउठी सँभाल बाल, मुख-फिरा कर बात करोलट,पट, दीप बुझा, हँस बोलीकेवल सच्ची बातें करना बहुत बड़ी बीमारी है रही यह एक ठिठोली ।</pre>
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