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"वसंत / मोहन राणा" के अवतरणों में अंतर
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सपनों के बिना अर्थहीन है यथार्थ | सपनों के बिना अर्थहीन है यथार्थ | ||
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यही सोचते मैं बदलता करवट, | यही सोचते मैं बदलता करवट, | ||
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परती रोशनी में सुबह की | परती रोशनी में सुबह की | ||
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लापता है वसंत इस बरस, | लापता है वसंत इस बरस, | ||
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हर पेड़ पर चस्पा है गुमशुदा का इश्तिहार, | हर पेड़ पर चस्पा है गुमशुदा का इश्तिहार, | ||
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पर उसमें ना कोई अता है ना पता | पर उसमें ना कोई अता है ना पता | ||
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ना ही कोई पहचान | ना ही कोई पहचान | ||
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मालूम नहीं मैं क्या कहूँगा | मालूम नहीं मैं क्या कहूँगा | ||
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यदि वह मिला कहीं | यदि वह मिला कहीं | ||
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क्या मैं पूछंगा उसकी अनुपस्थिति का कारण | क्या मैं पूछंगा उसकी अनुपस्थिति का कारण | ||
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कि इतनी छोटी सी मुलाकात | कि इतनी छोटी सी मुलाकात | ||
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क्या पर्याप्त | क्या पर्याप्त | ||
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फिर से पहचानने के लिए | फिर से पहचानने के लिए | ||
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तो लिख लूँ इस इश्तिहार में अपना नाम भी | तो लिख लूँ इस इश्तिहार में अपना नाम भी | ||
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कि याद आए कुछ | कि याद आए कुछ | ||
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जो भूल ही गया, | जो भूल ही गया, | ||
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अनुपस्थित स्पर्श | अनुपस्थित स्पर्श | ||
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18:54, 28 मार्च 2011 के समय का अवतरण
सपनों के बिना अर्थहीन है यथार्थ
यही सोचते मैं बदलता करवट,
परती रोशनी में सुबह की
लापता है वसंत इस बरस,
हर पेड़ पर चस्पा है गुमशुदा का इश्तिहार,
पर उसमें ना कोई अता है ना पता
ना ही कोई पहचान
मालूम नहीं मैं क्या कहूँगा
यदि वह मिला कहीं
क्या मैं पूछंगा उसकी अनुपस्थिति का कारण
कि इतनी छोटी सी मुलाकात
क्या पर्याप्त
फिर से पहचानने के लिए
तो लिख लूँ इस इश्तिहार में अपना नाम भी
कि याद आए कुछ
जो भूल ही गया,
अनुपस्थित स्पर्श
रचनाकाल: 21.3.2006