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18:53, 31 मार्च 2011 के समय का अवतरण
एक कविता रिपोर्ताज
अतिरेक
सूखे के बाद
सीधे आ जाती बाढ़
यहाँ नहीं
बीच की जमीन ...
प्रस्ताव
नगर में बरसात की
क्या जरूरत
वह भी राजधानी में
सदन इस बात पर था सहमत
और तय हुआ
जल्दी ही
इस संबंध में
की जायेगी
उचित कार्रवाई
उम्मीद
सरकार उठाने ही वाली थी
ठोस कदम
कि शुरू हो गयी बरसात
अब क्या करे
वह तो खुद ही
पानी पानी
पर कुछ होगा जरूर
अभी पाँव उसके
भारी ...
बहाव
ऐसी झड़ी
देखी नहीं कभी
इतनी बारिश
कि बहाने भी
बह गये ...
घुमाव
भरी सड़क थी
भागकर पकड़ी
पतली गली
गली में गले तक
बह रही थी नाली ...
दूसरा रास्ता
लौटते समय
देखते
डूबा हुआ
वह रास्ता
जिससे आये
आपदा की घड़ी
और राह अनदेखी
जोखिम भरी
आते हुए
देखते आना
चाहिए
एक और रास्ता
निकासी
तब जल रही थी जमीन
और रास्ता नहीं था
कहीं से पानी के निकलने का
अब हर ओर
हर ठौर
तर-ब-तर
तब भी
रास्ता नहीं कोई
कि निकले पानी ...
परिदृश्य
बौछारों में
नहीं कोई ठौर
कुछ फटेहाल मजदूर
लगभग नंगे
ओढ़े खड़े
बहुराष्ट्रीय शीतल पेय कंपनी के
प्रचार वाला तिरपाल
अच्छा है
वही ओट दे रहा
जो इसका
जिम्मेदार ...
अबाध
उस विदग्ध मौसम में
बरस रहे थे अंगार
हर ओर दरार ही दरार
चीख रही थी जमीन
और आसमान निर्विकार
धरती अभी
पूरी भरी
नहीं दिखती
आसमान में कोई फाँक कहीं...
हाल
पहिये आधे
डूबे हुए
पानी कुछ ज्यादा ही
गाड़ियों के लिए
और नावों की खातिर
कुछ कम ...
काला पानी
अब नहीं
हो रही
बारिश
पानी मगर
गया नहीं
सूखकर
स्याह हो गया
घिरे जिससे
हर ओर से
जाने कब तक
लगा रहेगा
काला पानी
घर यह कब तक
बना रहेगा
काला पानी ...
सियासत
घर के घर
समा गये
इस पानी में
कहीं कुछ
नहीं बचा
तैर रहीं केवल
टोपियाँ ...
बचाव
हर बार
पानी गुजर जाता सिर से
सब बह जाता
सब डूब जाता
जाने कैसे
बची रह जातीं
सरकारें ...
सचाई
वह जो
तर
करती
अंतर
अब बेहतर
यही
वह तरी
तुम्हारे भीतर
हो कम
से कमतर ...!
पानी का सपना
पानी पानी
बोल रहा
हर हिन्दुस्तानी
कुछ रूहों में
कुछ चेहरों पर
कुछ ऑंखों में
कुछ होंठों पर
थोड़ा अपना
थोड़ा सपना
थोड़ा खुद में
थोड़ा सब में
तकना होगा
लखना होगा
रचना होगा
रखना होगा
वरना यूँ ही
बहा करेंगे
सालों सालों
सैलाबों में...