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12:40, 23 दिसम्बर 2007 के समय का अवतरण
जाने क्यों, प्रिय,
जी भर कर बातें हो न सकीं
बढ़ गया दर्द इतना ये आँखें रो न सकीं
बहुतेरा ही दुलराया-बहलाया मन को
पर जगी हुई काली छायाएँ सो न सकीं ।
(1945 में बनारस में रचित)