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|संग्रह=फूल नहीं, रंग बोलते हैं-1 / केदारनाथ अग्रवाल
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हे मेरी तुम !
 
आज धूप जैसी हो आई
 
और दुपट्टा
 
उसने मेरी छत पर रक्खा
 
मैंने समझा तुम आई हो
 
दौड़ा मैं तुमसे मिलने को
 
लेकिन मैंने तुम्हें न देखा
 
बार-बार आँखों से खोजा
 
वही दुपट्टा मैंने देखा
 
अपनी छत के ऊपर रक्खा ।
 
मैं हताश हूँ
 
पत्र भेजता हूँ, तुम उत्तर जल्दी देना :
 
बतलाओ क्यों तुम आई थीं मुझ से मिलने
 
आज सवेरे,
 
और दुपट्टा रख कर अपना
 
चली गई हो बिना मिले ही ?
 
क्यों ?
 
आख़िर इसका क्या कारण ?
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