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जिस टहनी पर बैठा हुआ है | जिस टहनी पर बैठा हुआ है | ||
उसी को ख़ुद काटता है | उसी को ख़ुद काटता है |
01:12, 23 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
यहाँ पहुँचते वसंत की जीभ को
तूने उखाड़ दिया और
चिड़ियों के चोंच से
कोई आवाज़ नहीं निकलती
तूने वसंत के सौभाग्य को
हड़प लिया
देख
अब यहाँ गंधहीन फूल खिले हैं
नदी में तैरते मछली-परिवार को
तूने तबाह कर दिया
नदी भी तेरे द्वारा तोड़े गए
दर्पण के टुकडों-सी
बिखरी पडी हैं
तू मनुष्य को धीमी गति से मरने की
गोलियाँ बेचकर
धनी बना
और अब ख़ुद दवा के इंतज़ार में है
तू साँस लेता है हवा में
और पेयजल में
और इनमें मृत्यु का चारा टाँगता है
जिस टहनी पर बैठा हुआ है
उसी को ख़ुद काटता है
तू आँखें मलते उठते शहर को
विषैली-गैस का कफ़न ओढ़ाकर
हमेशा के लिए सुलाता है
अगली शताब्दी का
इंतज़ार करती काली चिडिया का
गला घोंटता है तू
निषाद ! बंद कर यह सब !
मूल मलयालम से अनुवाद : संतोष अलेक्स