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"जो बहुत तरसा-तरसा कर / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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23:00, 4 मई 2011 के समय का अवतरण
जो बहुत तरसा-तरसा कर
मेघ से बरसा
हमें हरसाता हुआ,
-माटी में रीत गया ।
आह! जो हमें सरसाता है
वह छिपा हुआ पानी है हमारा
इस जानी-पहचानी
माटी के नीचे का ।
-रीतता नहीं
बीतता नहीं ।