भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जो बहुत तरसा-तरसा कर / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=आँगन के पार द्वार / अज्ञेय }} {{KKCatKavita}}…)
 
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=आँगन के पार द्वार / अज्ञेय
 
|संग्रह=आँगन के पार द्वार / अज्ञेय
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatNavgeet}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>

23:00, 4 मई 2011 के समय का अवतरण

जो बहुत तरसा-तरसा कर
मेघ से बरसा
हमें हरसाता हुआ,
        -माटी में रीत गया ।

आह! जो हमें सरसाता है
वह छिपा हुआ पानी है हमारा
इस जानी-पहचानी
माटी के नीचे का ।
         -रीतता नहीं
          बीतता नहीं ।