भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रामगुणगान / तुलसीदास/ पृष्ठ 6" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=र…)
 
 
पंक्ति 13: पंक्ति 13:
  
 
'''रामभक्ति की याचना'''
 
'''रामभक्ति की याचना'''
+
 
( छंद 121 से 123 तक)
+
( छंद 121 से 123 तक)
 +
 
 +
(121)
 +
 
 +
भयो न तिकाल तिहूँ  लोक तुलसी-सो मंद,
 +
निंदै सब साधु, सुनि मानौं न सकोचु हौं।
 +
 
 +
जानत न जोगु हियँ  हानि मानैं जानकीसु,
 +
काहेको  परेखो, पापी प्रपंची पोचु हौं।।
 +
 
 +
पेट भरिबेके काज महाराजको कहायों ,
 +
महाराजहूँ कह्यो है प्रनत-बिमोचु हौं।
 +
 
 +
निज अघजाल , कलिकालकी करालता,
 +
बिलोकि  होत ब्याकुल, करत सोई सोचु हौं।।
 +
 
 +
(122)
 +
 
 +
धर्म कें  सेतु जगमंगलके हेतु भूमि-
 +
भारू हरिबेको अवतारू लियो नरको।
 +
 
 +
नीति औ प्रतीति -प्रीतिपाल चालि प्रभु मानु,
 +
लोक -बेद राखिबेको पनु रघुबरको।।
 +
 
 +
बानर-बिभीषनकी ओर के कनावड़े  हैं ,
 +
सो प्रसंगु  सुने ं अंगु जरै अनुचरको।
 +
 
 +
राखे रीति आपनी जो होइ सोई कीजै,
 +
बलि, तुलसी तिहारो घर जायऊ है घरको।।
 +
 
 +
(123)
 +
 
 +
नाम महाराज के निबाह  नीको कीजे उर ,
 +
सबही सोहात , मैं न लोगनि सोहात हौं ।
 +
 
 +
कीजै राम! बार यहि मेरी ओर चष-कोर,
 +
ताहि लगि रंक ज्यों सनेह को ललात हौं।
 +
 
 +
तुलसी बिलोकि कलिकालकी करालता,
 +
कृपालको सुभाउ समुझत सकुचात हौं।
 +
 
 +
लोक एक भाँति को, त्रिलोकनाथ लोकबस,
 +
आपनो न सोचु , स्वामी -सोचहीं सुखात हौं।।
 +
 
  
 
</poem>
 
</poem>

10:35, 8 मई 2011 के समय का अवतरण


रामभक्ति की याचना

 ( छंद 121 से 123 तक)

(121)

भयो न तिकाल तिहूँ लोक तुलसी-सो मंद,
 निंदै सब साधु, सुनि मानौं न सकोचु हौं।

 जानत न जोगु हियँ हानि मानैं जानकीसु,
 काहेको परेखो, पापी प्रपंची पोचु हौं।।

पेट भरिबेके काज महाराजको कहायों ,
महाराजहूँ कह्यो है प्रनत-बिमोचु हौं।

 निज अघजाल , कलिकालकी करालता,
 बिलोकि होत ब्याकुल, करत सोई सोचु हौं।।

(122)

धर्म कें सेतु जगमंगलके हेतु भूमि-
भारू हरिबेको अवतारू लियो नरको।

नीति औ प्रतीति -प्रीतिपाल चालि प्रभु मानु,
 लोक -बेद राखिबेको पनु रघुबरको।।

 बानर-बिभीषनकी ओर के कनावड़े हैं ,
 सो प्रसंगु सुने ं अंगु जरै अनुचरको।

राखे रीति आपनी जो होइ सोई कीजै,
 बलि, तुलसी तिहारो घर जायऊ है घरको।।

(123)

नाम महाराज के निबाह नीको कीजे उर ,
सबही सोहात , मैं न लोगनि सोहात हौं ।

कीजै राम! बार यहि मेरी ओर चष-कोर,
 ताहि लगि रंक ज्यों सनेह को ललात हौं।

तुलसी बिलोकि कलिकालकी करालता,
कृपालको सुभाउ समुझत सकुचात हौं।

लोक एक भाँति को, त्रिलोकनाथ लोकबस,
आपनो न सोचु , स्वामी -सोचहीं सुखात हौं।।