Changes

{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"अज्ञेय }}[[Category:लम्बी रचना]]{{KKPageNavigation|पीछे=असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 1|आगे=असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 3|सारणी=असाध्य वीणा / अज्ञेय
}}
[[Category:लम्बी कविता]]
 
[[असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 1|<< पिछला भाग]]
 
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]
 
सौंप रहा था उसी किरीटी-तरु को<br>
कौन प्रियंवद है कि दंभ कर<br>
इस अभिमन्त्रित कारुवाद्य के सम्मुख आवे?<br>
कौन बजावे<br>
यह वीणा जो स्वंय एक जीवन-भर की साधना रही?<br>
भूल गया था केश-कम्बली राज-सभा को :<br><br>
कम्बल पर अभिमन्त्रित एक अकेलेपन में डूब गया था[[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]]<brpoem>जिसमें साक्षी के आगे सौंप रहा था<br>जीवित रही उसी किरीटी-तरु<br>को जिसकी जड़ वासुकि कौन प्रियंवद है कि दंभ कर इस अभिमन्त्रित कारुवाद्य के फण पर थी आधारित,<br>सम्मुख आवे? जिसके कन्धों पर बादल सोते थे<br>कौन बजावे और कान में जिसके हिमगिरी कहते थे अपने रहस्य।<br>यह वीणा जो स्वंय एक जीवन-भर की साधना रही? सम्बोधित कर उस तरु भूल गया था केश-कम्बली राज-सभा को, करता था<br>नीरव एकालाप प्रियंवद।<br><br>:
"ओ विशाल तरु!<br>कम्बल पर अभिमन्त्रित एक अकेलेपन में डूब गया था शत सहस्र पल्लवनजिसमें साक्षी के आगे था जीवित रही किरीटी-पतझरों ने जिसका नित रूप सँवारा,<br>तरु कितनी बरसातों कितने खद्योतों ने आरती उतारीजिसकी जड़ वासुकि के फण पर थी आधारित,<br>दिन भौंरे कर गये गुंजरित,<br>जिसके कन्धों पर बादल सोते थे रातों और कान में झिल्ली ने<br>जिसके हिमगिरी कहते थे अपने रहस्य। अनथक मंगल-गान सुनायेसम्बोधित कर उस तरु को,<br>करता था साँझ सवेरे अनगिन<br>अनचीन्हे खग-कुल की मोद-भरी क्रीड़ा काकलि<br>डाली-डाली को कँपा गयी--<br>नीरव एकालाप प्रियंवद।
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]<br><br>"ओ विशाल तरु! शत सहस्र पल्लवन-पतझरों ने जिसका नित रूप सँवारा, कितनी बरसातों कितने खद्योतों ने आरती उतारी, दिन भौंरे कर गये गुंजरित, रातों में झिल्ली ने अनथक मंगल-गान सुनाये, साँझ सवेरे अनगिन अनचीन्हे खग-कुल की मोद-भरी क्रीड़ा काकलि डाली-डाली को कँपा गयी--
ओ दीर्घकाय!<br>ओ पूरे झारखंड के अग्रज,<br>तात, सखा, गुरु, आश्रय,<br>त्राता महच्छाय,<br>ओ व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के<br>वृन्दगान के मूर्त रूप,<br>मैं तुझे सुनूँ,<br>देखूँ, ध्याऊँ<br>अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक [[चित्र:<br>कहाँ साहस पाऊँ<br>छू सकूँ तुझे !<br>तेरी काया को छेद, बाँध कर रची गयी वीणा को<br><br>Vichitra Veena1.jpg]]
किस स्पर्धा से<br>ओ दीर्घकाय! हाथ करें आघात<br>ओ पूरे झारखंड के अग्रज, छीनने को तारों से<br>तात, सखा, गुरु, आश्रय, एक चोट में वह संचित संगीत जिसे रचने में<br>त्राता महच्छाय, स्वंय न जाने कितनों ओ व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के स्पन्दित प्राण रचे गये।<br><br>वृन्दगान के मूर्त रूप, मैं तुझे सुनूँ, देखूँ, ध्याऊँ अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक : कहाँ साहस पाऊँ छू सकूँ तुझे ! तेरी काया को छेद, बाँध कर रची गयी वीणा को
"नहीं, नहीं ! वीणा यह मेरी गोद रही है, रहे,<br>किस स्पर्धा से किन्तु मैं ही तो<br>हाथ करें आघात तेरी गोदी बैठा मोद-भरा बालक हूँ,<br>छीनने को तारों से तो तरु-तात ! सँभाल मुझे,<br>मेरी हर किलक<br>पुलक एक चोट में डूब जाय :<br><br>वह संचित संगीत जिसे रचने में स्वंय न जाने कितनों के स्पन्दित प्राण रचे गये।
[[चित्र"नहीं, नहीं ! वीणा यह मेरी गोद रही है, रहे, किन्तु मैं ही तो तेरी गोदी बैठा मोद-भरा बालक हूँ, तो तरु-तात ! सँभाल मुझे, मेरी हर किलक पुलक में डूब जाय :Veena_instrument.jpg]]<br><br>
[[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]]
[[असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 3|अगला भाग >>]]
</poem>
Mover, Reupload, Uploader
7,916
edits