"अमृता प्रीतम / परिचय" के अवतरणों में अंतर
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+ | '''प्रेम की अधूरी प्यास के दस्तावेजों की सर्जक अमृता!''' | ||
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+ | आलेखः-अशोक कुमार शुक्ला | ||
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+ | अमृमा प्रीतम का जन्म 1919 में पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के गुजरांवाला शहर में हुआ । बचपन लाहौर में बीता और शिक्षा भी वंही पर हुई। इनके माता पिता पंचखंड भसोड़ के स्कूल में पढाते थे। इनका बचपन अपनी नानी के घर बीता जो रूढिवादी विचारधारा की महिला थी। अमृता बचपन से ही रूढियों के विरूद्व खडी होने वाली बालिका थीं । बचपन में अमृता ने देखा कि उनकी नानी की रसोई में कुछ बरतन और तीन गिलास अन्य बरतनों से अलग रखे रहते थे परिवार में सामान्यतः उन बर्तनों का उपयोग नहीं होता था । अमृता के पिता के मुसलमान दोस्तों के आने पर ही उन्हें उपयोग में लाया जाता था। बालिका अमृता ने अपनी नानी से जिद करते हुये उन गिलासों में ही पानी पीने की जिद की और फिर कई दिन की डांट-फटकार और सत्याग्रह के बाद अंततः अपने पिता के मुसलमान दोस्तों के लिये अलग किये गये गिलासों को सामान्य रसोई के बरतनेां में मिलाकर रूढियों के विरूद्व खडी होने का पहला परिचय दिया। | ||
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+ | जब ये ग्यारह वर्ष की हुयीं तो इनकी मॉ की मृत्यु हो गयी । मां के साथ गहरे भावनात्मक लगाव के कारण मृत्यु शैया पर पडी अपनी मां के पास यह अबोध बालिका भी बैठी थीं। बालिका ने घर के बडे बुजुगों से सुन रखा था कि बच्चे भगवान का रूप होते हैं और भगवान बच्चों की बात नहीं टालते सेा अमृता भी अपनी मरती हुयी मां की खाट के पास खड़ी हुयी ईश्वर से अपनी मां की सलामती की दुआ मांगकर मन ही मन यह विश्वास कर बैठीं थीं कि अब उनकी मां की मृत्यु नहीं होगी क्योंकि ईश्वर बच्चों का कहा नहीं टालता..... पर मां की मृत्यु हो गयी, और उनका ईश्वर के उपर से विश्वास हट गया। ईश्वर के प्रति अपने विश्वास की टूटन को उन्होने अपने उपन्यास ‘एक सवाल’ में कथानायक जगदीप के माध्यम से हूबहू व्यक्त किया है जब जगदीप अपनी मरती हुयी मां की खाट के पास खड़ा हुआ है, और एकाग्र मन होकर ईश्वर से कहता है-‘ मेरी मां केा मत मारो।’ नायक को भी ठीक उसी तरह यह विश्वास हो गया कि अब उसकी मां की मृत्यु नहीं होगी क्योंकि ईश्वर बच्चों का कहा नहीं टालता..... पर मां की मृत्यु हो गयी, और , अमृता की तरह कथा नायक जगदीप का भी ईश्वर के उपर से विश्वास हट गया। | ||
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+ | इन्होंने अपना सृजन मुख्य रूप से पंजाबी और उर्दू भाषा में किया है। अपनी आत्म कथा में अमृता ने अपने जीवन के संदर्भ में लिखा हैः- | ||
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+ | ‘‘ ---इन वर्षो की राह में, दो बडी घटनायें हुई। एक- जिन्हें मेरे दुःख सुक्ष से जन्म से ही संबंध था, मेरे माता पिता, उनके हाथों हुई। और दूसरी मेरे अपने हाथों । यह एक-मेरी चार वर्ष की आयु में मेरी सगाई के रूप में, और मेरी सोलह सत्तरह वर्ष की आयु में मेरे विवाह के रूप में थी। और दूसरी- जो मेरे अपने हाथों हुई- यह मेरी बीस-इक्कीस वर्ष की आयु में मेरी एक मुहब्बत की सूरत में थी।---’’ | ||
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+ | अपने विचारों को कागज पर उकेरने की प्रतिभा उनमें जन्मजात थी। मन की कोरें में आते विचारों को डायरी में लिखने से जुडे एक मजेदार किस्से को उन्होंने इस प्रकार लिखा हैः- | ||
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+ | ‘‘--पृष्ठभूमि याद है-तब छोटी थी, जब डायरी लिखती थी तो सदा ताले में रखती थीं। पर अलमारी के अन्दर खाने की उस चाभी को शायद ऐसे संभाल-संभालकर रखती थी कि उसकी संभाल किसी को निगाह में आ गयी ।(यह विवाह के बाद की बात है)। एक दिन मेरी चोरी से उस अलमारी का वह खाना खेाला गया और डायरी को पढा गया। और फिर मुझसे कई पंक्तियों की विस्तार पूर्ध व्याख्या मांगी गयी। उस दिन को भुगतकर मेने वह डायरी फाड दी, और बाद में कभी डायरी न लिखने का अपने आपसे इकरार कर लिया।---’’ | ||
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+ | विख्यात शायर साहिर लुधियानवी से अमृता का प्यार तत्कालीन समालोचकों का पसंदीदा विषय था। साहिर के साथ अपने लगाव को उन्होंने बेबाकी से अपनी आत्मकथा में इस प्रकार व्यक्त किया है।ः- | ||
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+ | ‘‘--- पर जिंदगी में teen समय ऐसे आए हैं-जब मैने अपने अन्दर की सिर्फ औरत को जी भर कर देखा है। उसका रूप इतना भरा पूरा था कि मेरे अन्दर के लेखक का अस्तित्व मेरे ध्यान से विस्मृत हो गया--दूसरी बार ऐसा ही समय मैने तब देखा जब एक दिन साहिर आया था तो उसे हल्का सा बुखार चढा हुआ था। उसके गले में दर्द था-- सांस खिंचा-खिंचा थां उस दिन उसके गले और छाती पर मैने ‘विक्स’ मली थी। कितनी ही देर मलती रही थी--और तब लगा था, इसी तरह पैरों पर खडे़ खडे़ पोरों से , उंगलियोें से और हथेली से उसकी छाती को हौले हौले मलते हुये सारी उम्र गुजार sakati हूं। मेरे अंदर की सिर्फ औरत को उस समय दुनिया के किसी कागज कलम की आवश्यकता नहीं थी।--- | ||
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+ | लाहौर में जब कभी साहिर मिलने के लिये आता था तो जैसे मेरी ही खामोशी से निकला हुआ खामेाशी का एक टुकड़ा कुर्सी पर बैठता था और चला जाता था---वह चुपचाप सिगरेट पीता रहता था, कोई आधा सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देेता था, फिर नया सिगरेट सुलगा लेता था।और उसके जाने के बाद केवल सिगरेट के बड़े छोटे टुकडे़ कमरे में रह जाते थे। | ||
+ | कभी --एक बार उसके हाथ छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी जो तय नहीं होती थी-- | ||
+ | तब कल्पना की करामात का सहारा लिया था। उसके जाने के बाद, मै उसके छोडे हुये सिगरेट को संभाल कर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक-एक टुकडे़ को अकेले जलाती थी, और जब उंगलियों के बीच पकड़ती थी तो बैठकर लगता था जैसे उसका हाथ छू रही हूं---- ’’ | ||
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+ | साहिर के प्रति उनके मन में प्रेम की अभिव्यक्ति उनकी अनेक रचनाओं में हुयी हैः- | ||
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+ | ‘‘---देश विभाजन से पहले तक मेरे पास एक चीज थी जिसे मैं संभाल -संभाल कर रखती थी। यह साहिर की नज्म ताजमहल थी जो उसने फ्रेम कराकर मुझे दी थी। पर देश के विभाजन के बाद जोे मेरे पास धीरे धीरे जुडा है आज अपनी अलमारी का अन्दर का खाना टटोलने लगी हूं तो दबे हुए खजाने की भांति प्रतीत हो रहा है--- | ||
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+ | ---एक पत्ता है जो मैं टॉलस्टाय की कब्र परसे लायी थी और एक कागज का गोल टुकडा है जिसके एक ओर छपा हुआ है’-एशियन राइटर्स कांफ्रेस और दूसरी ओर हाथ से लिखा हुआ है साहिर लुधियानवी यह कांफ्रेंस के समय का बैज है जो कांफ्रेस में सम्मिलित होने वाले प्रत्येक लेखक को मिला था। मैने अपने नाम का बैज अपने कोट पर लगाया हुआ था और साहिर ने अपने नाम का बैज अपने कोट पर । साहिर ने अपना बैज उतारकर मेरे कोट पर लगा दिया और मेरा बैज उतारकर अपने कोट पर लगा लिया और------’’ | ||
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+ | विभाजन का दर्द अमृता ने सिर्फ सुना ही नहीं देखा और भोगा भी था। इसी पृष्ठभूमि पर उन्होंनंे अपना उपन्यास ‘पिंजर’ लिखा। 1947 में 3 जुलाई को अमृता ने एक बच्चे को जन्म दिया और उसके तुरंत बाद 14 अगस्त 1947 को विभाजन का मंजर भी देखा जिसके संदर्भ में उससे लिखा किः- | ||
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+ | ‘‘ दुखों की कहानियां कह- कहकर लोग थक गए थे, पर ये कहानियां उम्र से पहले खत्म होने वाली नहीं थीं। मैने लाशें देखीं थीं , लाशों जैसे लोग देखे थे, और जब लाहौर से आकर देहरादून में पनाह ली, तब ----एक ही दिन में सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक रिश्ते कांच के बरतनेां की भांति टूट गये थे और उनकी किरचें लोगों के पैरों में चुभी थी और मेरे माथे में भी ----- ’’ | ||
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+ | जीवन के उत्तरार्ध में अम्रता जी इमरोज नामक कलाकार के बहुत नजदीक रहीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा हैंः- | ||
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+ | ‘‘मुझ पर उसकी पहली मुलाकात का असर- मेरे शरीर के ताप के रूप में हुआ था। मन में कुछ घिर आया, और तेज बुखार चढ़ गया। उस दिन- उस शाम उसने पहली बार अपने हाथ से मेरा माथा छुआ था- बहुत बुखार है? इन शब्दों के बाद उसके मुॅह से केवल एक ही वाक्य निकला था- आज एक दिन में मैं कई साल बडा हो गया हूं। | ||
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+ | --कभी हैरान हो जाती हूं - इमरोज ने मुझे कैसा अपनाया है, उस दर्द के समेत जो उसकी अपनी खुशी का मुखालिफ हैं-- | ||
+ | एक बार मैने हंसकर कहा था, ईमू ! अगर मुझे साहिर मिल जाता , तो फिर तू न मिलता- और वह मुझे , मुझसे भी आगे , अपनाकर कहने लगा:-मैं तो तुझेे मिलता ही मिलता, भले ही तुझे साहिर के घर नमाज पढ़ते हुए ढूंढ लेता! | ||
+ | सेाचती हूं - क्या खुदा इस जैसे इन्सान से कहीं अलग होता है--’’ | ||
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+ | अमृता प्रीतम ने स्वयं अपनी रचनाओं में व्यक्त अधूरी प्यास के संदर्भ में लिखा है कि | ||
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+ | ‘‘ग्ंागाजल से लेकर वोडका तक यह सफरनामा है मेरी प्यास का।’’ | ||
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+ | अम्रता की रचनाओं में विभाजन का दर्द और मानवीय संवेदनाओं का सटीक चित्रण हुआ है। इनके संबंध में नेपाल के उपन्यासकार धूंसवां सायमी ने 1972 में लिखा थाः- | ||
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+ | ‘‘ मैं जब अम्रता प्रीतम की कोई रचना पढता हूं, तब मेरी भारत विरोधी भावनाऐं खत्म हो जाती हैं।’’ | ||
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+ | इनकी कविताओं के संकलन ‘धूप का टुकडा’ के हिंदी में अनुदित प्रकाशन पर कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने लिखा थाः- | ||
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+ | ‘‘अमृता प्रीतम की कविताओं में रमना हृदय में कसकती व्यथा का घाव लेकर , प्रेम और सौन्दर्य की धूप छांव वीथि में विचरने के समान है ं इन कविताओं के अनुवाद से हिन्दी काव्य भाव धनी, स्वव्न7 संस्कृत तथा शिल्प समृद्ध बनेगा--- ’’ | ||
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+ | इनकी रचनाओं मंे '''‘दिल्ली की गलियां’(उपन्यास), ‘एक थी अनीता’(उपन्यास), काले अक्षर, कर्मों वाली, केले का छिलका, दो औरतें (सभी कहानियां 1970 के आस-पास) ‘यह हमारा जीवन’(उपन्यास 1969 ), ‘आक के पत्ते’ (पंजाबी में बक्क दा बूटा ),‘चक नम्बर छत्तीस’( ), ‘यात्री’ (उपन्यास1968,), ‘एक सवाल (उपन्यास ),‘पिधलती चट्टान(कहानी 1974), धूप का टुकडा(कविता संग्रह), ‘गर्भवती’(कविता संग्रह), ''' आदि प्रमुख हैं। | ||
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+ | इनके उपन्यासों पर फिल्मों और दूरदर्शन धारावाहिक का भी निर्माण भी हुआ है। | ||
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+ | ==पुरस्कार== | ||
+ | अमृता जी को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी नवाजा गया, जिनमे प्रमुख है १९५७ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९५८ में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कार, १९८८ में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार;(अन्तर्राष्ट्रीय) और १९८२ में भारत के सर्वोच्च साहित्त्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार। वे '''पहली महिला थी जिन्हे साहित्य अकादमी अवार्ड''' मिला और साथ ही साथ वे पहली पंजाबी महिला थी जिन्हे १९६९ मे पद्मश्री अवार्ड से नवाजा गया। १९६१ तक इन्होने आल इन्डिया रेडियो मे काम किया। १९६० मे अपने पति से तलाक के बाद, इनकी रचनाओं मे महिला पात्रों की पीड़ा और वैवाहिक जीवन के कटु अनुभवों का अहसास को महसूस किया जा सकता है। विभाजन की पीड़ा को लेकर इनके उपन्यास पिंजर पर एक फ़िल्म भी बनी थी, जो अच्छी खासी चर्चा मे रही। इन्होने पचास से अधिक पुस्तकें लिखीं और इनकी काफ़ी रचनाये विदेशी भाषाओं मे भी अनुवादित हुई। | ||
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+ | इनके पुरस्कारों की तो लम्बी फ़ेहरिस्त है - | ||
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+ | सम्मान और पुरस्कार | ||
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+ | साहित्य अकादमी पुरस्कार (१९५६) | ||
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+ | पद्मश्री (१९६९) | ||
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+ | डाक्टर आफ़ लिटरेचर (दिल्ली यूनिवर्सिटी- १९७३) | ||
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+ | डाक्टर आफ़ लिटरेचर (जबलपुर यूनिवर्सिटी- १९७३) | ||
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+ | बल्गारिया वैरोव पुरस्कार(बुल्गारिया - १९७९) | ||
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+ | भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार (१९८१) | ||
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+ | डाक्टर आफ़ लिटरेचर (विश्व भारती शांतिनिकेतनी- १९८७) | ||
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+ | फ़्रांस सरकार द्वारा सम्मान (१९८७) | ||
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+ | प्रमुख कृतियां: | ||
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+ | उपन्यास: पांच बरस लंबी सड़क, पिंजर, अदालत,कोरे कागज़, उन्चास दिन, सागर और सीपियां, नागमणि, रंग का पत्ता, दिल्ली की गलियां, तेरहवां सूरज,जिलावतन (१९६८)| | ||
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+ | आत्मकथा: रसीदी टिकिट (१९७६) | ||
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+ | कहानी संग्रह: कहानियां जो कहानियां नहीं हैं, कहानियों के आंगन में | ||
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+ | संस्मरण: कच्चा आंगन, एक थी सारा । | ||
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+ | कविता संग्रह: | ||
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+ | अमृत लहरें (१९३६) | ||
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+ | जिन्दा जियां (१९३९) | ||
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+ | ट्रेल धोते फूल (१९४२) | ||
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+ | ओ गीता वालियां (१९४२) | ||
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+ | बदलम दी लाली (१९४३) | ||
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+ | लोक पिगर (१९४४) | ||
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+ | पगथर गीत (१९४६) | ||
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+ | पंजाबी दी आवाज(१९५२) | ||
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+ | सुनहरे (१९५५) | ||
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+ | अशोका चेती (१९५७) | ||
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+ | कस्तूरी (१९५७) | ||
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+ | नागमणि (१९६४) | ||
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+ | इक सी अनीता (१९६४) | ||
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+ | चक नाबर छ्त्ती (१९६४) | ||
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+ | उनीझा दिन (१९७९) | ||
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+ | कागज ते कैनवास (१९८१) - ज्ञानपीठ पुरस्कार |
10:42, 17 मई 2011 का अवतरण
गद्यकोश से साभार
प्रेम की अधूरी प्यास के दस्तावेजों की सर्जक अमृता!
आलेखः-अशोक कुमार शुक्ला
अमृमा प्रीतम का जन्म 1919 में पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के गुजरांवाला शहर में हुआ । बचपन लाहौर में बीता और शिक्षा भी वंही पर हुई। इनके माता पिता पंचखंड भसोड़ के स्कूल में पढाते थे। इनका बचपन अपनी नानी के घर बीता जो रूढिवादी विचारधारा की महिला थी। अमृता बचपन से ही रूढियों के विरूद्व खडी होने वाली बालिका थीं । बचपन में अमृता ने देखा कि उनकी नानी की रसोई में कुछ बरतन और तीन गिलास अन्य बरतनों से अलग रखे रहते थे परिवार में सामान्यतः उन बर्तनों का उपयोग नहीं होता था । अमृता के पिता के मुसलमान दोस्तों के आने पर ही उन्हें उपयोग में लाया जाता था। बालिका अमृता ने अपनी नानी से जिद करते हुये उन गिलासों में ही पानी पीने की जिद की और फिर कई दिन की डांट-फटकार और सत्याग्रह के बाद अंततः अपने पिता के मुसलमान दोस्तों के लिये अलग किये गये गिलासों को सामान्य रसोई के बरतनेां में मिलाकर रूढियों के विरूद्व खडी होने का पहला परिचय दिया।
जब ये ग्यारह वर्ष की हुयीं तो इनकी मॉ की मृत्यु हो गयी । मां के साथ गहरे भावनात्मक लगाव के कारण मृत्यु शैया पर पडी अपनी मां के पास यह अबोध बालिका भी बैठी थीं। बालिका ने घर के बडे बुजुगों से सुन रखा था कि बच्चे भगवान का रूप होते हैं और भगवान बच्चों की बात नहीं टालते सेा अमृता भी अपनी मरती हुयी मां की खाट के पास खड़ी हुयी ईश्वर से अपनी मां की सलामती की दुआ मांगकर मन ही मन यह विश्वास कर बैठीं थीं कि अब उनकी मां की मृत्यु नहीं होगी क्योंकि ईश्वर बच्चों का कहा नहीं टालता..... पर मां की मृत्यु हो गयी, और उनका ईश्वर के उपर से विश्वास हट गया। ईश्वर के प्रति अपने विश्वास की टूटन को उन्होने अपने उपन्यास ‘एक सवाल’ में कथानायक जगदीप के माध्यम से हूबहू व्यक्त किया है जब जगदीप अपनी मरती हुयी मां की खाट के पास खड़ा हुआ है, और एकाग्र मन होकर ईश्वर से कहता है-‘ मेरी मां केा मत मारो।’ नायक को भी ठीक उसी तरह यह विश्वास हो गया कि अब उसकी मां की मृत्यु नहीं होगी क्योंकि ईश्वर बच्चों का कहा नहीं टालता..... पर मां की मृत्यु हो गयी, और , अमृता की तरह कथा नायक जगदीप का भी ईश्वर के उपर से विश्वास हट गया।
इन्होंने अपना सृजन मुख्य रूप से पंजाबी और उर्दू भाषा में किया है। अपनी आत्म कथा में अमृता ने अपने जीवन के संदर्भ में लिखा हैः-
‘‘ ---इन वर्षो की राह में, दो बडी घटनायें हुई। एक- जिन्हें मेरे दुःख सुक्ष से जन्म से ही संबंध था, मेरे माता पिता, उनके हाथों हुई। और दूसरी मेरे अपने हाथों । यह एक-मेरी चार वर्ष की आयु में मेरी सगाई के रूप में, और मेरी सोलह सत्तरह वर्ष की आयु में मेरे विवाह के रूप में थी। और दूसरी- जो मेरे अपने हाथों हुई- यह मेरी बीस-इक्कीस वर्ष की आयु में मेरी एक मुहब्बत की सूरत में थी।---’’
अपने विचारों को कागज पर उकेरने की प्रतिभा उनमें जन्मजात थी। मन की कोरें में आते विचारों को डायरी में लिखने से जुडे एक मजेदार किस्से को उन्होंने इस प्रकार लिखा हैः-
‘‘--पृष्ठभूमि याद है-तब छोटी थी, जब डायरी लिखती थी तो सदा ताले में रखती थीं। पर अलमारी के अन्दर खाने की उस चाभी को शायद ऐसे संभाल-संभालकर रखती थी कि उसकी संभाल किसी को निगाह में आ गयी ।(यह विवाह के बाद की बात है)। एक दिन मेरी चोरी से उस अलमारी का वह खाना खेाला गया और डायरी को पढा गया। और फिर मुझसे कई पंक्तियों की विस्तार पूर्ध व्याख्या मांगी गयी। उस दिन को भुगतकर मेने वह डायरी फाड दी, और बाद में कभी डायरी न लिखने का अपने आपसे इकरार कर लिया।---’’
विख्यात शायर साहिर लुधियानवी से अमृता का प्यार तत्कालीन समालोचकों का पसंदीदा विषय था। साहिर के साथ अपने लगाव को उन्होंने बेबाकी से अपनी आत्मकथा में इस प्रकार व्यक्त किया है।ः-
‘‘--- पर जिंदगी में teen समय ऐसे आए हैं-जब मैने अपने अन्दर की सिर्फ औरत को जी भर कर देखा है। उसका रूप इतना भरा पूरा था कि मेरे अन्दर के लेखक का अस्तित्व मेरे ध्यान से विस्मृत हो गया--दूसरी बार ऐसा ही समय मैने तब देखा जब एक दिन साहिर आया था तो उसे हल्का सा बुखार चढा हुआ था। उसके गले में दर्द था-- सांस खिंचा-खिंचा थां उस दिन उसके गले और छाती पर मैने ‘विक्स’ मली थी। कितनी ही देर मलती रही थी--और तब लगा था, इसी तरह पैरों पर खडे़ खडे़ पोरों से , उंगलियोें से और हथेली से उसकी छाती को हौले हौले मलते हुये सारी उम्र गुजार sakati हूं। मेरे अंदर की सिर्फ औरत को उस समय दुनिया के किसी कागज कलम की आवश्यकता नहीं थी।---
लाहौर में जब कभी साहिर मिलने के लिये आता था तो जैसे मेरी ही खामोशी से निकला हुआ खामेाशी का एक टुकड़ा कुर्सी पर बैठता था और चला जाता था---वह चुपचाप सिगरेट पीता रहता था, कोई आधा सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देेता था, फिर नया सिगरेट सुलगा लेता था।और उसके जाने के बाद केवल सिगरेट के बड़े छोटे टुकडे़ कमरे में रह जाते थे। कभी --एक बार उसके हाथ छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी जो तय नहीं होती थी-- तब कल्पना की करामात का सहारा लिया था। उसके जाने के बाद, मै उसके छोडे हुये सिगरेट को संभाल कर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक-एक टुकडे़ को अकेले जलाती थी, और जब उंगलियों के बीच पकड़ती थी तो बैठकर लगता था जैसे उसका हाथ छू रही हूं---- ’’
साहिर के प्रति उनके मन में प्रेम की अभिव्यक्ति उनकी अनेक रचनाओं में हुयी हैः-
‘‘---देश विभाजन से पहले तक मेरे पास एक चीज थी जिसे मैं संभाल -संभाल कर रखती थी। यह साहिर की नज्म ताजमहल थी जो उसने फ्रेम कराकर मुझे दी थी। पर देश के विभाजन के बाद जोे मेरे पास धीरे धीरे जुडा है आज अपनी अलमारी का अन्दर का खाना टटोलने लगी हूं तो दबे हुए खजाने की भांति प्रतीत हो रहा है---
---एक पत्ता है जो मैं टॉलस्टाय की कब्र परसे लायी थी और एक कागज का गोल टुकडा है जिसके एक ओर छपा हुआ है’-एशियन राइटर्स कांफ्रेस और दूसरी ओर हाथ से लिखा हुआ है साहिर लुधियानवी यह कांफ्रेंस के समय का बैज है जो कांफ्रेस में सम्मिलित होने वाले प्रत्येक लेखक को मिला था। मैने अपने नाम का बैज अपने कोट पर लगाया हुआ था और साहिर ने अपने नाम का बैज अपने कोट पर । साहिर ने अपना बैज उतारकर मेरे कोट पर लगा दिया और मेरा बैज उतारकर अपने कोट पर लगा लिया और------’’
विभाजन का दर्द अमृता ने सिर्फ सुना ही नहीं देखा और भोगा भी था। इसी पृष्ठभूमि पर उन्होंनंे अपना उपन्यास ‘पिंजर’ लिखा। 1947 में 3 जुलाई को अमृता ने एक बच्चे को जन्म दिया और उसके तुरंत बाद 14 अगस्त 1947 को विभाजन का मंजर भी देखा जिसके संदर्भ में उससे लिखा किः-
‘‘ दुखों की कहानियां कह- कहकर लोग थक गए थे, पर ये कहानियां उम्र से पहले खत्म होने वाली नहीं थीं। मैने लाशें देखीं थीं , लाशों जैसे लोग देखे थे, और जब लाहौर से आकर देहरादून में पनाह ली, तब ----एक ही दिन में सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक रिश्ते कांच के बरतनेां की भांति टूट गये थे और उनकी किरचें लोगों के पैरों में चुभी थी और मेरे माथे में भी ----- ’’
जीवन के उत्तरार्ध में अम्रता जी इमरोज नामक कलाकार के बहुत नजदीक रहीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा हैंः-
‘‘मुझ पर उसकी पहली मुलाकात का असर- मेरे शरीर के ताप के रूप में हुआ था। मन में कुछ घिर आया, और तेज बुखार चढ़ गया। उस दिन- उस शाम उसने पहली बार अपने हाथ से मेरा माथा छुआ था- बहुत बुखार है? इन शब्दों के बाद उसके मुॅह से केवल एक ही वाक्य निकला था- आज एक दिन में मैं कई साल बडा हो गया हूं।
--कभी हैरान हो जाती हूं - इमरोज ने मुझे कैसा अपनाया है, उस दर्द के समेत जो उसकी अपनी खुशी का मुखालिफ हैं-- एक बार मैने हंसकर कहा था, ईमू ! अगर मुझे साहिर मिल जाता , तो फिर तू न मिलता- और वह मुझे , मुझसे भी आगे , अपनाकर कहने लगा:-मैं तो तुझेे मिलता ही मिलता, भले ही तुझे साहिर के घर नमाज पढ़ते हुए ढूंढ लेता! सेाचती हूं - क्या खुदा इस जैसे इन्सान से कहीं अलग होता है--’’
अमृता प्रीतम ने स्वयं अपनी रचनाओं में व्यक्त अधूरी प्यास के संदर्भ में लिखा है कि
‘‘ग्ंागाजल से लेकर वोडका तक यह सफरनामा है मेरी प्यास का।’’
अम्रता की रचनाओं में विभाजन का दर्द और मानवीय संवेदनाओं का सटीक चित्रण हुआ है। इनके संबंध में नेपाल के उपन्यासकार धूंसवां सायमी ने 1972 में लिखा थाः-
‘‘ मैं जब अम्रता प्रीतम की कोई रचना पढता हूं, तब मेरी भारत विरोधी भावनाऐं खत्म हो जाती हैं।’’
इनकी कविताओं के संकलन ‘धूप का टुकडा’ के हिंदी में अनुदित प्रकाशन पर कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने लिखा थाः-
‘‘अमृता प्रीतम की कविताओं में रमना हृदय में कसकती व्यथा का घाव लेकर , प्रेम और सौन्दर्य की धूप छांव वीथि में विचरने के समान है ं इन कविताओं के अनुवाद से हिन्दी काव्य भाव धनी, स्वव्न7 संस्कृत तथा शिल्प समृद्ध बनेगा--- ’’
इनकी रचनाओं मंे ‘दिल्ली की गलियां’(उपन्यास), ‘एक थी अनीता’(उपन्यास), काले अक्षर, कर्मों वाली, केले का छिलका, दो औरतें (सभी कहानियां 1970 के आस-पास) ‘यह हमारा जीवन’(उपन्यास 1969 ), ‘आक के पत्ते’ (पंजाबी में बक्क दा बूटा ),‘चक नम्बर छत्तीस’( ), ‘यात्री’ (उपन्यास1968,), ‘एक सवाल (उपन्यास ),‘पिधलती चट्टान(कहानी 1974), धूप का टुकडा(कविता संग्रह), ‘गर्भवती’(कविता संग्रह), आदि प्रमुख हैं।
इनके उपन्यासों पर फिल्मों और दूरदर्शन धारावाहिक का भी निर्माण भी हुआ है।
पुरस्कार
अमृता जी को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी नवाजा गया, जिनमे प्रमुख है १९५७ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९५८ में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कार, १९८८ में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार;(अन्तर्राष्ट्रीय) और १९८२ में भारत के सर्वोच्च साहित्त्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार। वे पहली महिला थी जिन्हे साहित्य अकादमी अवार्ड मिला और साथ ही साथ वे पहली पंजाबी महिला थी जिन्हे १९६९ मे पद्मश्री अवार्ड से नवाजा गया। १९६१ तक इन्होने आल इन्डिया रेडियो मे काम किया। १९६० मे अपने पति से तलाक के बाद, इनकी रचनाओं मे महिला पात्रों की पीड़ा और वैवाहिक जीवन के कटु अनुभवों का अहसास को महसूस किया जा सकता है। विभाजन की पीड़ा को लेकर इनके उपन्यास पिंजर पर एक फ़िल्म भी बनी थी, जो अच्छी खासी चर्चा मे रही। इन्होने पचास से अधिक पुस्तकें लिखीं और इनकी काफ़ी रचनाये विदेशी भाषाओं मे भी अनुवादित हुई।
इनके पुरस्कारों की तो लम्बी फ़ेहरिस्त है -
सम्मान और पुरस्कार
साहित्य अकादमी पुरस्कार (१९५६)
पद्मश्री (१९६९)
डाक्टर आफ़ लिटरेचर (दिल्ली यूनिवर्सिटी- १९७३)
डाक्टर आफ़ लिटरेचर (जबलपुर यूनिवर्सिटी- १९७३)
बल्गारिया वैरोव पुरस्कार(बुल्गारिया - १९७९)
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार (१९८१)
डाक्टर आफ़ लिटरेचर (विश्व भारती शांतिनिकेतनी- १९८७)
फ़्रांस सरकार द्वारा सम्मान (१९८७)
प्रमुख कृतियां:
उपन्यास: पांच बरस लंबी सड़क, पिंजर, अदालत,कोरे कागज़, उन्चास दिन, सागर और सीपियां, नागमणि, रंग का पत्ता, दिल्ली की गलियां, तेरहवां सूरज,जिलावतन (१९६८)|
आत्मकथा: रसीदी टिकिट (१९७६)
कहानी संग्रह: कहानियां जो कहानियां नहीं हैं, कहानियों के आंगन में
संस्मरण: कच्चा आंगन, एक थी सारा ।
कविता संग्रह:
अमृत लहरें (१९३६)
जिन्दा जियां (१९३९)
ट्रेल धोते फूल (१९४२)
ओ गीता वालियां (१९४२)
बदलम दी लाली (१९४३)
लोक पिगर (१९४४)
पगथर गीत (१९४६)
पंजाबी दी आवाज(१९५२)
सुनहरे (१९५५)
अशोका चेती (१९५७)
कस्तूरी (१९५७)
नागमणि (१९६४)
इक सी अनीता (१९६४)
चक नाबर छ्त्ती (१९६४)
उनीझा दिन (१९७९)
कागज ते कैनवास (१९८१) - ज्ञानपीठ पुरस्कार