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|रचनाकार=तुलसीदास
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'''शिव स्तुति (राग धनाश्री)'''
दानी कहुँ संकर-सम नाहीं।
 
दीन-दयालु दिबोई भावै, जाचक सदा सोहाहीं।1।
 
मारिकै मार थप्यौ जगमें, जाकी प्रथम रेख भट माहीं।
 
ता ठाकुरकौ रिझि निवाजिबौ, कह्यौ क्यों परत मो पाहीं।2।
 
जोग कोटि करि जो गति हरिसों, मुनि माँगत सकुचाहीं।
 
बेद-बिदित तेहि पद पुरारि-पुर, कीट पतंग समाहीं।3।
 
ईस उदार उमापति परिहरि, अनत जे जाचन जाहीं।
 
तुलसिदास ते मूढ़ माँगने, कबहुँ न पेट अघाहीं।4।
(जारी)
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