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|रचनाकार=शैल चतुर्वेदी
|संग्रह=चल गई / शैल चतुर्वेदी
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<poem>
एक मित्र कहने लगे-
"जहाँ तक नज़र जाती है
एक सैतीस सैंतीस बरस का
अपंग बच्चा नज़र आता है
जो अपने लुँज हाथों को
उठाने की कोशिश करता हुआ
चीख चीख़ रहा है-
'मुझे दल-दल से निकालो
मै मैं प्रजातंत्र हूँ
मुझे बचा लो।
मैं तुम्हारा ईमान हूँ
राजनीति लपेट लेते हैं
और रहा कॉमर्स, तो उसे
उनके भाई -भतीजे
और दामाद समेट लेते हैं।"
हमने कहा-
आपके पास कोई विषय नहीं है।"
वे बोले-"क्यों नहीं
बूढा बूढ़ा बाप है
बीमार माँ है
उदास बीबी है
भूखे बच्चे हैं
जवान बहन बहिन है
बेकार भाई है
भ्रष्टाचार है
महंगाई है
बीस का खर्चा ख़र्चा है
दस की कमाई है
इधर कुआँ है
वे बोले-"तीस की उम्र में
साठ के नज़र आ रहे हैं
बस यूँ ही समझिएकि अपनी ही उम्र खा रहे हैहैं
हिन्दुस्तान में पैदा हुए थे
क़ब्रिस्तान में जी रहे हैं
जबसे माँ का दूध छोड़ा है
आँसू पी रहे है।हैं।"
हमने कहा-"भगवान जाने
आँसुओं का समन्दर है
जो भी उसे लूट ले
वही मुकद्दर मुक़द्दर का सिकन्दर है।"
हमने पूछा-"देश का क्या होगा?"
मगर जहाँ का तहाँ है
कल आपको ढूँढना पड़ेगा
कि देश कहा कहाँ है
कोई कहेगा-ढूँढते रहिए
देश तो हमारी जेब में पड़ा है
देश क्या हमारी जेब से बड़ा है?"