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"शाम की साज़िश / त्रिपुरारि कुमार शर्मा" के अवतरणों में अंतर

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मैं ख़ूब समझता हूँ  
 
मैं ख़ूब समझता हूँ  
 
 
शाम की साज़िश  
 
शाम की साज़िश  
 
 
रौशनी जब अपने ही जाले में उलझ जाती है  
 
रौशनी जब अपने ही जाले में उलझ जाती है  
 
 
थान खुलता है जब अंधेरे का  
 
थान खुलता है जब अंधेरे का  
 
 
अपने होंठों से रेत चिपका कर  
 
अपने होंठों से रेत चिपका कर  
 
 
शाम, मेरी छाती से लिपट जाती है   
 
शाम, मेरी छाती से लिपट जाती है   
 
 
और मेरी गर्दन  
 
और मेरी गर्दन  
 
 
जिसपर कुछ भी नहीं है  
 
जिसपर कुछ भी नहीं है  
 
 
धूल के सिवा  
 
धूल के सिवा  
 
 
धूल, उस गर्दन की  
 
धूल, उस गर्दन की  
 
 
जिसे देख कर  
 
जिसे देख कर  
 
 
क्षितिज-सा गुमान होता था  
 
क्षितिज-सा गुमान होता था  
 
 
जब कभी मेरे होंठ  
 
जब कभी मेरे होंठ  
 
 
उस सूनी-सी गली में भटक जाते थे  
 
उस सूनी-सी गली में भटक जाते थे  
 
 
एक अजीब-सा सकून मिलता था  
 
एक अजीब-सा सकून मिलता था  
 
 
कोई भी परेशानी नहीं  
 
कोई भी परेशानी नहीं  
 
 
न पढ़ाई का ख़्याल  
 
न पढ़ाई का ख़्याल  
 
 
न नौकरी की फ़िक्र  
 
न नौकरी की फ़िक्र  
 
 
न बाबूजी की बातें  
 
न बाबूजी की बातें  
 
 
न माँ की याद  
 
न माँ की याद  
 
 
न वक़्त, न दिन, न तारीख़  
 
न वक़्त, न दिन, न तारीख़  
 
 
कुछ भी नहीं   
 
कुछ भी नहीं   
 
 
बस एक स्याह दरवाज़ा  
 
बस एक स्याह दरवाज़ा  
 
 
और फिर रौशनी ही रौशनी  
 
और फिर रौशनी ही रौशनी  
 
 
एक अजीब-सा सकून मिलता था  
 
एक अजीब-सा सकून मिलता था  
 
 
मैं अब भी खोजने लगता हूँ उसे
 
मैं अब भी खोजने लगता हूँ उसे
 
 
जब शाम  
 
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मेरी छाती से लिपट जाती है!
मेरी छाती से लिपट जाती है !
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01:42, 25 मई 2011 के समय का अवतरण

मैं ख़ूब समझता हूँ
शाम की साज़िश
रौशनी जब अपने ही जाले में उलझ जाती है
थान खुलता है जब अंधेरे का
अपने होंठों से रेत चिपका कर
शाम, मेरी छाती से लिपट जाती है
और मेरी गर्दन
जिसपर कुछ भी नहीं है
धूल के सिवा
धूल, उस गर्दन की
जिसे देख कर
क्षितिज-सा गुमान होता था
जब कभी मेरे होंठ
उस सूनी-सी गली में भटक जाते थे
एक अजीब-सा सकून मिलता था
कोई भी परेशानी नहीं
न पढ़ाई का ख़्याल
न नौकरी की फ़िक्र
न बाबूजी की बातें
न माँ की याद
न वक़्त, न दिन, न तारीख़
कुछ भी नहीं
बस एक स्याह दरवाज़ा
और फिर रौशनी ही रौशनी
एक अजीब-सा सकून मिलता था
मैं अब भी खोजने लगता हूँ उसे
जब शाम
मेरी छाती से लिपट जाती है!