भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"शिकवा / इक़बाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: टिप्पणी: शिकवा इक़बाल की शायद सबसे चर्चित रचना है जिसमें उन्होंन…)
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
टिप्पणी: शिकवा इक़बाल की शायद सबसे चर्चित रचना है जिसमें उन्होंने मुस्लिमों के स्वर्णयुग को याद करते हुए ईश्वर से मुसलमानों की हालत के बारे में शिकायत की है ।
 
टिप्पणी: शिकवा इक़बाल की शायद सबसे चर्चित रचना है जिसमें उन्होंने मुस्लिमों के स्वर्णयुग को याद करते हुए ईश्वर से मुसलमानों की हालत के बारे में शिकायत की है ।
  
 
+
<poem>
  
 
क्यूं ज़ियाकार बनूं, सूद फ़रामोश रहूँ
 
क्यूं ज़ियाकार बनूं, सूद फ़रामोश रहूँ
 
फ़िक्र-ए-फर्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
 
फ़िक्र-ए-फर्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
 +
नाले बुल-बुल की सुनूँ और हमअतंगोश रहूँ
 
हमनवीं मैं भी कोई गुल हूँ के ख़ामोश रहूँ ।
 
हमनवीं मैं भी कोई गुल हूँ के ख़ामोश रहूँ ।
 +
 +
क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मज़ूर हैं हम
 +
नाला आता है
 +
 +
ऐ खुदा, शिकवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा भी सुन ले
 +
कूगर-ए-हम्थोज़ से ड़ा सा ग़िला भी सुन ले ।
 +
 +
शर्त-ए-इंसाप है ऐ साहब-ए-अल्ताफ़-ए-हमीं ।
 +
 +
 +
हमसे पहले था अजब तेरे जहाँ का मंजर
 +
कहीं थे मस्जूद ते पत्थर, कहीं ...
 +
 +
तुझको मालूम है लेता था कोई नाम तेरा
 +
 +
बस रहे थे यहीं सल्जूक भी, तूरानी भी
 +
अहल-ए-चीन  चीन में, ईरान में ईरानी भी
 +
इसी मामूरे में बस रहे थे यूनानी भी
 +
इसी दुनिया में यहूदी भी थी, सासानी भी
 +
पर तेरे नमाम पर तलवार उढाई किसने
 +
बात जो बिगड़ी हुई थी बनाई किसने
 +
 +
दी अज़ाने कभी यूरोप के कलीशाओं में
 +
कभी अफ़्रीक़ा के तपत सेहराओं में ।
 +
 +
</poem>

17:46, 28 मई 2011 का अवतरण

टिप्पणी: शिकवा इक़बाल की शायद सबसे चर्चित रचना है जिसमें उन्होंने मुस्लिमों के स्वर्णयुग को याद करते हुए ईश्वर से मुसलमानों की हालत के बारे में शिकायत की है ।


क्यूं ज़ियाकार बनूं, सूद फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फर्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
नाले बुल-बुल की सुनूँ और हमअतंगोश रहूँ
हमनवीं मैं भी कोई गुल हूँ के ख़ामोश रहूँ ।

क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मज़ूर हैं हम
नाला आता है

ऐ खुदा, शिकवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा भी सुन ले
कूगर-ए-हम्थोज़ से ड़ा सा ग़िला भी सुन ले ।

शर्त-ए-इंसाप है ऐ साहब-ए-अल्ताफ़-ए-हमीं ।


हमसे पहले था अजब तेरे जहाँ का मंजर
कहीं थे मस्जूद ते पत्थर, कहीं ...

तुझको मालूम है लेता था कोई नाम तेरा

बस रहे थे यहीं सल्जूक भी, तूरानी भी
अहल-ए-चीन चीन में, ईरान में ईरानी भी
इसी मामूरे में बस रहे थे यूनानी भी
इसी दुनिया में यहूदी भी थी, सासानी भी
पर तेरे नमाम पर तलवार उढाई किसने
बात जो बिगड़ी हुई थी बनाई किसने

दी अज़ाने कभी यूरोप के कलीशाओं में
कभी अफ़्रीक़ा के तपत सेहराओं में ।