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ऐ ख़ुदा, शिकवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा भी सुन ले
ख़ूगर-ए-हम्द <ref>प्रशंसा करने के आदी</ref> से थोड़ा सा ग़िला भी सुन ले ।
थी तो मौजूद अज़ल <ref>आदि</ref> से ही तेरी ज़ात-ए-क़दीम <ref> पुराने जीव प्राणी </ref>
फूल था ज़ेब-ए-चमन, पर न परेशान थी शमीम<ref> सुगंध</ref> ।
शर्त-ए-इंसाफ़ है ऐ साहिब-ए-अल्ताफ़-ए-अमीं ।
अहल-ए-चीं चीन में, ईरान में सासानी<ref>अरबों की ईरान पर फ़तह के ठीक पहले के शासक, अग्निपूजक पारसी, अमुस्लिम</ref> भी ।
इसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भी ।
इसी दुनिया में यहूदी भी थे, नसरानी <ref>ईसाई</ref> भी ।
पर तेरे नाम पर तलवार उठाई किसने ?
हम जो जीते थे, तो जंगों की मुसीबत के लिए
और मरते थे तेरे नाम की अज़मत <ref>महानता</ref> के लिए ।
थी न कुछ तेग़ ज़नी अपनी हुकूमत के लिए
सर बकफ़<ref> हथेली पर</ref> फिरते थे क्या दहर <ref>दुनिया</ref> में दौलत के लिए ?
कौम अपनी जो ज़रोमाल-ए-जहाँ पर मरती
बुत फरोशी के एवज़ बुत-शिकनी क्यों करती ?
टल न सकते थे अगर जंग में अड़ जाते थे
कौन सी क़ौम फ़क़त<ref> सिर्फ़</ref> तेरी तलबगार हुई ?
और तेरे लिए जहमतकश-ए- पैकार हुई ?
किसकी शमशीर<ref>तलवार</ref> जहाँगीर, जहाँदार हुई ?
किसकी तक़दीर से दुनिया तेरी बेदार हुई ?
किसकी हैबत <ref>डर </ref> से सनम<ref>मूर्तियाँ </ref> सहमे हुए रहते थे ?
मुँह के बल गिरके 'हु अल्लाह-ओ-अहद' कहते थे ।
आ गया ऐन लड़ाई में अगर वक़्त-ए-नमाज़
क़िब्ला रू हो<ref>मक्के के रुख होकर </ref> के ज़मीं बोस <ref>जमीन चूमना, अर्थ सजदे के लिए झुकने से है ।</ref> हुई क़ौम-ए-हिजाज़ <ref>मुस्लिम क़ौम। हिजाज़ वो अरबी प्रांत है जिसमें मक्का और मदीना हैं ।</ref> ।
एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद -ओ- अयाज़ <ref> अयाज़ नाम का सुल्तान महमूद ग़ज़नी का एक ग़ुलाम था जिसकी बन्दगी से ख़ुश होकर सुल्तान ने उसे शाह का दर्जा दिया था और लाहौर को सन् १०२१ में बड़ी मुश्किलों से जीतने के बाद, उसे वहाँ का राजा बनाया था । </ref>
न कोई बन्दा रहा, और न कोई बन्दा नवाज़ ।
दौर-ए-इंसा को ग़ुलामी से छुड़ाया हमने ।
तेरे काबे को ज़बीनों <ref>भौंह</ref> पे बसाया हमने
तेरे क़ुरान क़ुरआन को सीनों से लगाया हमने ।
फिर भी हमसे ये ग़िला है कि वफ़ादार नहीं ?
सैकड़ों हैं कि तेरे नाम से बेदार भी है ।
रहमतें हैं तेरी अगियार अग़ियार<ref>दुश्मन</ref> के काशानों पर ।
बर्क गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर ।
तुझकों छोड़ा कि रसूल-ए-अरबी <ref>अरब का पैग़म्बर, यानि मुहम्मद </ref> को छोड़ा ?
बुतगरी पेशा किया, बुतशिकनी <ref>मूर्तियों को तोड़ना</ref> को छोड़ा ?
इश्क को, इश्क़ की आशुफ़्तासरी <ref>रोमांच, पुलक</ref> को छोड़ा ?
रस्म-ए-सलमान-ओ-उवैश-ए-क़रनी को छोड़ा ?
ज्यादा पैमाई-ए-तस्लीम-ओ-रिज़ा भी न सही ।
मुज़्तरिब<ref>बेचैन</ref> दिल सिफ़त-ए-क़िबलानुमा भी न सही
और पाबंदी -ए -आईन<ref>विधान, नियम</ref>-ए-वफ़ा भी न सही ।
कभी हमसे कभी ग़ैरों से शनासाई <ref>अपना, जुड़ा</ref> है ।
इनके नायाब-ए-मुहब्बत को फ़िर अरज़ां कर दे
हिन्द के दैर नशीनों को मुसल्मान कर दे ।
जू-ए-ख़ून मीचकद अज़ हसरते देरीना मा ।