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विष-पुरुष / रणजीत

2 bytes removed, 15:44, 30 जून 2011
आग
अन्तर में दबाए हूँ जिसे मैं
झपट कर कोई लपट उसकी तुम्हें छूलेछू लेकि वे चिन्गारियाँ चिंगारियाँ जो
युगों से सोई हुई हैं सर्द साँसों में तुम्हारी
आज फिर जग जाएँ
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