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मंज़िल कोई ऐसी भी एक आयी थी राह में
क्या कद्र क़द्र तेरी ज़र्द पँखुरियों की हो, गुलाब!
ख़ुशबू तो लुट चुकी है किसी ऐशगाह में
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