"पुकार / सत्यानन्द निरुपम" के अवतरणों में अंतर
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− | + | अमलतास के फूल खिल चुके | |
− | + | हवा धूप में रंग उड़ाए फिरती है | |
− | + | तेरी देह-गंध मेरी देह से मिटती ही नहीं | |
− | + | मन बौराया रहता है | |
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− | + | मैना फिर आज तक दिखी ही नहीं | |
− | + | वह आख़री शाम थी | |
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− | + | आसमान में जब भी टूटता है कोई तारा | |
− | + | मैं तुम्हारे आने की खुशी मांगता हूँ | |
+ | जब भी खिडकी में उतर आता है | ||
+ | उदासी का पखेरू | ||
+ | मैं तेरे होंठों की खबर पूछता हूँ | ||
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+ | और बरबस | ||
+ | एक नाज़ुक सी मुसकुराहट | ||
+ | मेरे होंठों पर | ||
+ | छुम-छ-न-न नाच जाती है | ||
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+ | मुझे मालूम है | ||
+ | तुमने देखा है कोई सपना | ||
+ | मैं उसे विस्तार देता हूँ | ||
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+ | हम बैठे हैं | ||
+ | किसी ऊँचे टीले के आख़री छोर पर | ||
+ | और नीचे नाचता है मोर | ||
+ | हवा पकड़ रही है जोर | ||
+ | बादल घिर आए हैं | ||
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+ | पड़ने लगी हैं बौछारें | ||
+ | रिम-झिम | ||
+ | हम अपनी हथेलियाँ | ||
+ | पसार चुके हैं | ||
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+ | मोर अपने पंख समेट चुका | ||
+ | दूर कहीं बिजली कड़की | ||
+ | और तुम डरी नहीं! | ||
+ | पिटने लगी तालियाँ... | ||
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+ | मैं तुम्हारे बंधे हुए केश खोल देना चाहता हूँ सखि | ||
+ | आओ, उतरो, आहिस्ते | ||
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+ | तुम्हें थामने को हाथ बढ़ाता हूँ | ||
+ | हवा गुदगुदाकर फिसल जाती है | ||
+ | ... | ||
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+ | ओह! तुम कहीं और हो | ||
+ | तुम्हें पुकार भी तो नहीं पाता... | ||
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12:55, 19 जुलाई 2011 के समय का अवतरण
और जब मैंने
तेरे नाम की पुकार लगानी चाही
होंठों के पट खुल न सके
कंठ की घंटियाँ बजें कैसे!
बस...दीये जलते हैं
आँखों में
और हिय में तेरे होने का
अहसास रहता है.
अमलतास के फूल खिल चुके
हवा धूप में रंग उड़ाए फिरती है
तेरी देह-गंध मेरी देह से मिटती ही नहीं
मन बौराया रहता है
मैना फिर आज तक दिखी ही नहीं
वह आख़री शाम थी
तुम्हारे जाने की
आसमान में जब भी टूटता है कोई तारा
मैं तुम्हारे आने की खुशी मांगता हूँ
जब भी खिडकी में उतर आता है
उदासी का पखेरू
मैं तेरे होंठों की खबर पूछता हूँ
और बरबस
एक नाज़ुक सी मुसकुराहट
मेरे होंठों पर
छुम-छ-न-न नाच जाती है
मुझे मालूम है
तुमने देखा है कोई सपना
मैं उसे विस्तार देता हूँ
हम बैठे हैं
किसी ऊँचे टीले के आख़री छोर पर
और नीचे नाचता है मोर
हवा पकड़ रही है जोर
बादल घिर आए हैं
पड़ने लगी हैं बौछारें
रिम-झिम
हम अपनी हथेलियाँ
पसार चुके हैं
मोर अपने पंख समेट चुका
दूर कहीं बिजली कड़की
और तुम डरी नहीं!
पिटने लगी तालियाँ...
मैं तुम्हारे बंधे हुए केश खोल देना चाहता हूँ सखि
आओ, उतरो, आहिस्ते
तुम्हें थामने को हाथ बढ़ाता हूँ
हवा गुदगुदाकर फिसल जाती है
...
ओह! तुम कहीं और हो
तुम्हें पुकार भी तो नहीं पाता...