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चैती अब पक कर तैयार है. खेतों के रंग बदल गए हैं.
 
चैती अब पक कर तैयार है. खेतों के रंग बदल गए हैं.

15:58, 9 जुलाई 2007 का अवतरण

चैती अब पक कर तैयार है. खेतों के रंग बदल गए हैं.

मटर उखड़ रही है. गेहूँ जौ खड़े हैं, हवा में झूम रहे

हैं, हवा की लहरों पर धूप का पानी चढ़ जाता

है.


फूले हैं पलाश, वैजयंती, कचनार, आम. चिलबिल अब

खंखड़ हैं, पीपल, शिरीष, नीम का भी यही हाल है.

बाँसों की पत्तियाँ हरियाली तज रही हैं । जल्दी

ही उन्हें अलग होना है ।


कमलों के कुंड में पुरइनों की बाढ़ है, अब वे फूल कहाँ हैं

जो ध्यान खींच लेते हैं । कुंड के कँटीले तार की बाड़ों

के बाहर ताल है जो ऎसे ही तारों से घिरा है .

जहाँ जल नहीं है वहाँ घास है, और जहाँ जल है वहाँ

जलकुंभी ललछौंही छाई है, जहाँ पानी गहरा है वहाँ

बस पानी है. हरी हरी काई और पौधे सिंघाड़ों के

दखल जमाए तलाव भर में पड़े हैं.


दाईं ओर, कँटीले तारों से घिरा, नन्हा मृगदाव है.

जिस में कई जाति के हिरण रखे गए हैं. नगर से

ऊबे हुए नागरिक आते हैं और थोड़ी देर मन बहला

कर जाते हैं. मैंने चुपचाप यहाँ बैठे दिन बिताया

है. सामने से सूरज अब पीछे आ पहुँचा है. कितनी

ही आवाज़ें सुनी हैं, पतली मद्धिम ऊँची, चिड़ियों

की, पशुओं की और आदमियों की ।


तीन सैलानी आए और बेंचों पर लेटे. उन में से एक ने

ट्रांजिस्टर लगा दिया, और एक चैता की बहार

रचने लगा, तीसरा जो बचा था कभी इधर कभी उधर

कान करने लगा. फिर आए तीन और, जिन में से

एक ने बच्चन की मधुशाला के दो या तीन छंद लहरा

लहरा के पढ़े. और और और और लोग आते जाते

रहे. मैं या तो बैठा रहा या माइकेल मधुसूदन दत्त

अथवा गिन्सबर्ग का कादिश पढ़ता रहा. देखता रहा

अपने भीतर भी बाहर भी. आकाश निर्मल रहा.

हवा कभी मंद और कभी तेज़ होती रही. पेड़ों की

टहनियाँ इस लहरीली धूप में सारे दिन अपने सुख

नाच करती रहीं ।


सारनाथ का अब जो रूप है वह पहले कहाँ था. पहले यह

कुछ विरक्त भिक्खुओं का केन्द्र था. जैसे निवासी

थे वैसा ही निवास था. अब भी यहाँ भिक्खु हैं. जिन

के पास वेष और अलंकार है, वैसा ही सारनाथ अलंकार-

युक्त है. अब तो यह सारनाथ नागरिकों, नागरिकाओं

का विहार-स्थल है, सुन्दर विहार हैं. तथागत, अब तो

तुम प्रसन्न हो? देखो ज़रा, इतने इतने लोग यहाँ आते

हैं तुम्हारे लिए.