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|रचनाकार=रामानन्द दोषी
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मन होता है पाराकि तुम मुझे मिलींऐसे देखा नहीं करो !मिला विहान को नया सृजनकि दीप को प्रकाश-रेखचाँद को नई किरन ।
जाने क्या से क्या कर डाला उलटकि स्वप्न-पुलट मौसमसेज साँवरीकभी घाव ज़्यादा दुखता है और कभी मरहमसरस सलज सजा रहीजहाँकि साँस में सुहासिनीसिहर-सिमट समा रहीकि साँस का सुहागमाँग में निखर उभर उठाकि गंध-युक्त केश मेंबाधा पवन सिहर उठाकि प्यार-जहाँ ज़्यादा दुखता हैपीर में विभौरछूकर वहीं दुबाराबन चली कली सुमन ऐसे देखा नहीं करो !कि तुम मुझे मिलींमन होता है पारा !मिला विहान को नया सृजन ।
कौन बचाकर आँख सुबह की नींद उतार गयाकि प्राण पाँव में भरोबूढ़े सूरज को पीछे से सीटी मार गयाभरो प्रवाह राह मेंशक हम पर पहले से थाकि आस में उछाह समतुम करके और इशाराबसो सजीव चाह मेंऐसे देखा नहीं करो !कि रोम-रोम रम रहोमन होता है पारा !सरोज में सुबास-सीकि नैन कोर छुप रहोअसीम रूप प्यास-सीअबाध अंग-अंग मेंउफान बन उठो सजनि कि तुम मुझे मिलींमिला विहान को नया सृजन ।
होना-जाना क्या है, जैसे कल था, वैसा कल
मेरे सन्नाटे में बस ख़ामोशी की हलचल
अँधियारे की नेमप्लेट पर
लिखकर तुम उजियारा
ऐसे देखा नहीं करो !
मन होता है पारा !
 
ऐसे देखा नहीं करो
मन होता है पारा !!
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