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|रचनाकार=रामानन्द दोषी
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कि तुम मुझे मिलीं
कि साँस में सुहासिनी
सिहर-सिमट समा रही
 
कि साँस का सुहाग
माँग में निखर उभर उठा
मिला विहान को नया सृजन ।
कि प्राण पाँव में भरो
भरो प्रवाह राह में
कि आस में उछाह सम
बसो सजीव चाह में
कि रोम-रोम रम रहो
सरोज में सुबास-सी
कि नैन कोर छुप रहो
असीम रूप प्यास-सी
अबाध अंग-अंग में
उफान बन उठो सजनि
कि तुम मुझे मिलीं
मिला विहान को नया सृजन ।
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