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"यह शहर/ गोपाल कृष्‍ण भट्ट 'आकुल'" के अवतरणों में अंतर

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(नया पृष्ठ: <poem> टि‍ड्डी दल सा घूम रहा मानव यहाँ शाम-सहर। आतंकी साये में पीता हा…)
 
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टि‍ड्डी दल सा घूम रहा मानव यहाँ शाम-सहर।  
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ति‍नका ति‍नका जोड़ रहा  
आतंकी साये में पीता हालाहल यह शहर।  
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मानव यहाँ शाम-सहर।  
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आतंकी साये में पीता
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हालाहल यह शहर।
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अनजानी सुख की चाहत
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संवेदनहीन ज़मीर
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इंद्रधनुषी अभि‍लाषायें
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बि‍न प्रत्‍यंचा बि‍न तीर
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महानगर के चक्रव्‍यूह में
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अभि‍मन्‍यु सा वीर
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आँखों की कि‍रकि‍री बने
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अपना ही कोई सगीर
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क़दम क़दम संघर्ष जि‍जीवि‍षा का
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दंगल यह शहर।
  
 
ढूँढ़ रहा है वो कोना जहाँ
 
ढूँढ़ रहा है वो कोना जहाँ

23:43, 6 सितम्बर 2011 का अवतरण

ति‍नका ति‍नका जोड़ रहा
मानव यहाँ शाम-सहर।
आतंकी साये में पीता
हालाहल यह शहर।

अनजानी सुख की चाहत

संवेदनहीन ज़मीर

इंद्रधनुषी अभि‍लाषायें

बि‍न प्रत्‍यंचा बि‍न तीर

महानगर के चक्रव्‍यूह में

अभि‍मन्‍यु सा वीर

आँखों की कि‍रकि‍री बने

अपना ही कोई सगीर

क़दम क़दम संघर्ष जि‍जीवि‍षा का

दंगल यह शहर।

ढूँढ़ रहा है वो कोना जहाँ
कुछ तो हो एकांत
है उधेड़बुन में हर कोई
पग-पग पर है अशांत
सड़क और फुटपाथ सदा
सहते अति‍क्रम का बोझ
बि‍जली के तारों के झूले
करते तांडव रोज
संजाल बना जंजाल नगर का
कोलाहल यह शहर।

दि‍नकर ने चेहरे की रौनक
दौड़धूप ने अपनापन
लूटा है सबने मि‍लकर
मि‍ट्टी के माधो का धन
पर्णकुटी से गगनचुंबी का
अथक यात्रा सम्‍मोहन
पाँच सि‍तारा चकाचौंध ने
झौंक दि‍या सब मय धड़कन
हृदयहीन एकाकी का है
राजमहल यह शहर।