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नशा / मधुप मोहता

615 bytes added, 10:57, 11 अक्टूबर 2011
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एक अंधेरानशा बेहोशी से गहरा देखा, एक ख़ामोशी, और तनहाईरात के तीन पांव होते हैं।ज़िंदगी की सुबह के चेहरे परमौत,रास्ते धूप-छांव होते हैं।कल शब तेरा चेहरा देखा।
ज़िंदगी के घने बियाबां बस तेरी आंख मुश्तइल थी मौत,और हर आंख मेंकोहरा देखा। वो जो दर्दों को जुबां देता था,प्यार के कुछ पड़ाव होते हैं।उस पे ख़ामोशी का पहरा देखा।अजनबी शहरों वो, जिनके नाम से गुलज़ार थे कई नुक्कड़,उनके होठों पे ग़म-ओ-दर्द को ठहरा देखा। दिलों की बस्तियों में अजनबी लोगों , प्यार के बीचघरौंदों में,दोस्तों हमने ख़ामोशी का सहरा देखा। मेरे ख़याल से रौशन थी एक-एक मशाल,हरेक लब पे तेरे नाम को ठहरा देखा। मैं जानता था कि, अंधी अदालतें हैं सभी,आज इस शहर में इंसाफ़ को बहरा देखा। (सफ़दर हाशमी के भी गांव होते हैं।लिए)
</Poem>
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