भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अस्तोदय की वीणा / रामनरेश त्रिपाठी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: बाजे अस्तोदय की वीणा-क्षण-क्षण गगनांगन में रे, हुआ प्रभात छिप गए …)
 
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
बाजे अस्तोदय की वीणा-क्षण-क्षण गगनांगन में रे,
+
{{KKGlobal}}
 
+
{{KKRachna
+
|रचनाकार=रामनरेश त्रिपाठी
हुआ प्रभात छिप गए तारे, संध्या हुई भानु भी हारे,
+
|संग्रह=मानसी / रामनरेश त्रिपाठी
 
+
}}
+
{{KKCatKavita‎}}
यह उत्थान पतन है व्यापक प्रति कण-कण में रे
+
<poem>
 
+
बाजे अस्तोदय की वीणा--क्षण-क्षण गगनांगण में रे।
+
::हुआ प्रभात छिप गए तारे,
ह्रास विकास विलोक इंदु में, बिंदु सिन्धु में सिन्धु बिंदु में,
+
::संध्या हुई भानु भी हारे,
 
+
यह उत्थान पतन है व्यापक प्रति कण-कण में रे॥
+
::ह्रास-विकास विलोक इंदु में,  
कुछ भी है थिर नहीं जगत के संघर्षण में रे
+
::बिंदु सिन्धु में सिन्धु बिंदु में,
 
+
कुछ भी है थिर नहीं जगत के संघर्षण में रे॥
+
::ऐसी ही गति तेरी होगी,  
ऐसी ही गति तेरी होगी, निश्चित है क्यों देरी होगी,
+
::निश्चित है क्यों देरी होगी,
 
+
गाफ़िल तू क्यों है विनाश के आकर्षण में रे॥
+
::निश्चय करके फिर न ठहर तू,  
गाफ़िल तू क्यों है विनाश आकर्षण में रे
+
::तन रहते प्रण पूरण कर तू,
 
+
विजयी बनकर क्यों न रहे तू जीवन-रण में रे?
+
</poem>
निश्चय करके फिर न ठहर तू, तन रहते प्रण पूरण कर तू,
+
 
+
+
विजयी बनकर क्यों न रहे तू जीवन-रण में रे 
+

16:08, 9 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण

बाजे अस्तोदय की वीणा--क्षण-क्षण गगनांगण में रे।
हुआ प्रभात छिप गए तारे,
संध्या हुई भानु भी हारे,
यह उत्थान पतन है व्यापक प्रति कण-कण में रे॥
ह्रास-विकास विलोक इंदु में,
बिंदु सिन्धु में सिन्धु बिंदु में,
कुछ भी है थिर नहीं जगत के संघर्षण में रे॥
ऐसी ही गति तेरी होगी,
निश्चित है क्यों देरी होगी,
गाफ़िल तू क्यों है विनाश के आकर्षण में रे॥
निश्चय करके फिर न ठहर तू,
तन रहते प्रण पूरण कर तू,
विजयी बनकर क्यों न रहे तू जीवन-रण में रे?