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"नाता-रिश्ता / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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तुम सतत <br>
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चिरन्तन छिने जाते हुए <br>
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तुम सतत 
क्षण का सुख हो-- <br>
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चिरन्तन छिने जाते हुए
(इसी में उस सुख की अलौकिकता है): <br>
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(उसी अकाल, अकूल नदी में जिस में से फिर
और फिर सोने की कनी फिसल कर बह जाएगी।) <br> <br>
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तुम सदा से <br>
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और फिर सोने की कनी फिसल कर बह जाएगी।)  
वह गान हो जिस की टेक-भर <br>
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गाने से रह गई। <br>
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तुम सदा से  
मेरी वह फूस की मड़िया जिस का छप्पर तो <br>
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वह गान हो जिस की टेक-भर
::हवा के झोंकों के लिए रह गया <br>
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गाने से रह गई।
पर दीवारें सब बेमौसम की वर्षा में बह गईं... <br>
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मेरी वह फूस की मड़िया जिस का छप्पर तो
यही सब हमारा नाता रिश्ता है--इसी में मैं हूँ <br>
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::हवा के झोंकों के लिए रह गया
::::और तुम हो: <br>
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पर दीवारें सब बेमौसम की वर्षा में बह गईं...
और इतनी ही बात है जो बार-बार कही गई <br>
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यही सब हमारा नाता रिश्ता है—इसी में मैं हूँ
और हर बार कही जाने में ही कही जाने से रह गई। <br> <br> <br>
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और इतनी ही बात है जो बार-बार कही गई
तो यों, इस लिए <br>
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और हर बार कही जाने में ही कही जाने से रह गई।    
यहीं अकेले में <br>
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बिना शब्दों के <br>
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मेरे इस हठी गीत को जागने दो, गूंजने दो <br>
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तो यों, इस लिए
मौन में लय हो जाने दो: <br>
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बिना शब्दों के
जहाँ कोई देखता-सुनता नहीं <br>
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मेरे इस हठी गीत को जागने दो, गूंजने दो
केवल मरु का रेत-लदा झोंका <br>
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मौन में लय हो जाने दो:
डँसता है और फिर एक किरकिरी <br>
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जहाँ कोई देखता-सुनता नहीं
यहीं <br>
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केवल मरु का रेत-लदा झोंका
जहाँ रवि तपता है <br>
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डँसता है और फिर एक किरकिरी
और अपनी ही तपन से जनी धूल-कनी की <br>
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हँसी हँसता बढ़ जाता है— 
यवनिका में झपता है-- <br>
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यहीं
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जहाँ रवि तपता है
जहाँ सब कुछ दीखता है, <br>
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और अपनी ही तपन से जनी धूल-कनी की  
और सब रंग सोख लिए गए हैं <br>
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यवनिका में झपता है— 
इस लिए हर कोई सीखता है कि <br>
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यहीं
सब कुछ अन्धा है। <br>
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जहाँ सब कुछ दीखता है,
जहाँ सब कुछ साँय-साँय गूंजता है <br>
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और सब रंग सोख लिए गए हैं
और निरे शोर में संयत स्वर धोखे से <br>
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इस लिए हर कोई सीखता है कि
लड़खड़ा कर झड़ जाता है। <br> <br> <br>
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सब कुछ अन्धा है।
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जहाँ सब कुछ साँय-साँय गूंजता है  
यहीं, यहीं और अभी <br>
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और निरे शोर में संयत स्वर धोखे से
इस सधे सन्धि-क्षण में <br>
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:लड़खड़ा कर झड़ जाता है।    
इस नए जनमे, नए जागे, <br>
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अपूर्व, अद्वितीय--अभागे <br>
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मेरे पुण्यगीत को <br>
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यहीं, यहीं और अभी
अपने अन्तःशून्य में ही तन्मय हो जाने दो-- <br>
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इस सधे सन्धि-क्षण में
यों अपने को पाने दो! <br> <br> <br>
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इस नए जनमे, नए जागे,
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अपूर्व, अद्वितीय—अभागे 
वही, वैसे ही अपने को पा ले, नहीं तो <br>
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मेरे पुण्यगीत को
और मैंने कब, कहाँ तुम्हें पाया है? <br>
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अपने अन्तःशून्य में ही तन्मय हो जाने दो— 
हाँ--बातों के बीच की चुप्पियों में <br>
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हँसी में उलझ कर अनसुनी हो गई आहों में <br>
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भीड़ों में भटकी हुई अनाथ आँखों में <br>
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तीर्थों की पगडण्डियों में <br>
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वही, वैसे ही अपने को पा ले, नहीं तो
बरसों पहले गुज़रे हुए यात्रियों की <br>
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और मैंने कब, कहाँ तुम्हें पाया है?
दाल-बाटी की बची-बुझी राखों में! <br> <br> <br>
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हाँ—बातों के बीच की चुप्पियों में
::५ <br> <br>
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हँसी में उलझ कर अनसुनी हो गई आहों में
उस राख का पाथेय लेकर मैं चलता हूँ-- <br>
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भीड़ों में भटकी हुई अनाथ आँखों में
उस मौन की भाषा मैं गाता हूँ: <br>
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तीर्थों की पगडण्डियों में
उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में <br>
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बरसों पहले गुज़रे हुए यात्रियों की
::मैं तुम्हारे पास जाता हूँ, पर <br>
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दाल-बाटी की बची-बुझी राखों में!    
मैं, जो होने में ही अपने को छलता हूँ-- <br>
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यों अपने अनस्तित्व में तुम्हें पाता हूँ! <br>
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::५  
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उस राख का पाथेय लेकर मैं चलता हूँ— 
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उस मौन की भाषा मैं गाता हूँ:
 +
उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में
 +
:मैं तुम्हारे पास जाता हूँ, पर
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मैं, जो होने में ही अपने को छलता हूँ— 
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यों अपने अनस्तित्व में तुम्हें पाता हूँ!  
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14:50, 17 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण

तुम सतत
चिरन्तन छिने जाते हुए
क्षण का सुख हो—
(इसी में उस सुख की अलौकिकता है):
भाषा की पकड़ में से फिसली जाती हुई
भावना का अर्थ—
(वही तो अर्थ सनातन है):
वह सोने की कली जो उस अंजलि-भर रेत में थी जो
धो कर अलग करने में—
मुट्ठियों से फिसल कर नदी में बह गई—
(उसी अकाल, अकूल नदी में जिस में से फिर
अंजलि भरेगी
और फिर सोने की कनी फिसल कर बह जाएगी।)

तुम सदा से
वह गान हो जिस की टेक-भर
गाने से रह गई।
मेरी वह फूस की मड़िया जिस का छप्पर तो
हवा के झोंकों के लिए रह गया
पर दीवारें सब बेमौसम की वर्षा में बह गईं...
यही सब हमारा नाता रिश्ता है—इसी में मैं हूँ
और तुम हो:
और इतनी ही बात है जो बार-बार कही गई
और हर बार कही जाने में ही कही जाने से रह गई।


तो यों, इस लिए
यहीं अकेले में
बिना शब्दों के
मेरे इस हठी गीत को जागने दो, गूंजने दो
मौन में लय हो जाने दो:
यहीं
जहाँ कोई देखता-सुनता नहीं
केवल मरु का रेत-लदा झोंका
डँसता है और फिर एक किरकिरी
हँसी हँसता बढ़ जाता है—
यहीं
जहाँ रवि तपता है
और अपनी ही तपन से जनी धूल-कनी की
यवनिका में झपता है—
यहीं
जहाँ सब कुछ दीखता है,
और सब रंग सोख लिए गए हैं
इस लिए हर कोई सीखता है कि
सब कुछ अन्धा है।
जहाँ सब कुछ साँय-साँय गूंजता है
और निरे शोर में संयत स्वर धोखे से
लड़खड़ा कर झड़ जाता है।


यहीं, यहीं और अभी
इस सधे सन्धि-क्षण में
इस नए जनमे, नए जागे,
अपूर्व, अद्वितीय—अभागे
मेरे पुण्यगीत को
अपने अन्तःशून्य में ही तन्मय हो जाने दो—
यों अपने को पाने दो!


वही, वैसे ही अपने को पा ले, नहीं तो
और मैंने कब, कहाँ तुम्हें पाया है?
हाँ—बातों के बीच की चुप्पियों में
हँसी में उलझ कर अनसुनी हो गई आहों में
भीड़ों में भटकी हुई अनाथ आँखों में
तीर्थों की पगडण्डियों में
बरसों पहले गुज़रे हुए यात्रियों की
दाल-बाटी की बची-बुझी राखों में!


उस राख का पाथेय लेकर मैं चलता हूँ—
उस मौन की भाषा मैं गाता हूँ:
उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में
मैं तुम्हारे पास जाता हूँ, पर
मैं, जो होने में ही अपने को छलता हूँ—
यों अपने अनस्तित्व में तुम्हें पाता हूँ!