{{KKRachna
|रचनाकार=जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद'
|संग्रह=जीवन-संगीत / जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद'
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:तुम आडंबर पर पद-प्रहार!
::मेरे किशोर, मेरे कुमार!
तुम यौवन-फल के पुष्प और शैशव-कलिका के हो विकास,तुम दो विश्वों के संधिस्थल पर आशा के उज्ज्वल प्रकाश;तुम जीर्ण जगत के नवचेतन, वसुधा के उर के अमर श्वास,:तुम उजड़े उपवन की बहार!::मेरे किशोर, मेरे कुमार!तुम वह प्राणद संदेश, बिखर जाते जिससे दुख, दैन्य, क्लेश,वह मस्ती, जिस पर असुर सुरा, सुर सुधा, गरल वारें महेश;तुम रवि की प्रखर किरण के निशि के उर में वह निर्भय प्रवेश,:जिससे कँप जाता अंधकार!::मेरे किशोर, मेरे कुमार!जो वन-पर्वत को चीर चले, तुम उस निर्झर के खर प्रवाह,जो कुश-कंटक को प्यार करे, उस राही की ‘अटपटी’ राह;जो तड़पे भोग-विलासों में, उस त्यागी उर की ऊष्ण आह,:तुम संकट-साहस पर निसार!::मेरे किशोर, मेरे कुमार!तुम एक-एक वे जलकण जो मिलकर बनते अगणित सागर,वे एके-एक तारक जिनसे ‘जगमग’ करता विस्तृत अंबर;तुम वे छोटे-छोटे रजकण जिनपर असीम वसुधा निर्भर,:तुम लघुता की महिमा अपार!::मेरे किशोर, मेरे कुमार!जीवन के दिन गिनने वाले कायर-कृपणों को दहला कर,पाखंड, मोह, छल, आडंबर के मलिन विश्व से उठ ऊपर;जो हँसते-हँसते टूट पड़े तारक-सा ‘धक-धक’ जल क्षण-भर,:तुम वह तेजस्वी, वह उदार!::मेरे किशोर, मेरे कुमार!जो तट से कोसों दूर पहुँच हलका चिंता का भार करे,मझधार अतल में अभय विमल दृग से जिसके अनुराग झरे,जो जीवन नौका फँसा भँवर में लहरों से खिलवाड़ करे,:तुम वह तूफ़ानी कर्णधार!::मेरे किशोर, मेरे कुमार!तुम नूतन की जय, जिसको सुन कँप उठता जीर्ण जगत ‘थर-थर’,वह वायुवेग, द्रुत होती गति जिससे मानवता की मंथर;वह जाग्रति-किरण, अलस पलकों पर तप्त शलाका-सी लगकर।:जो खुलवाती कर्तव्य-द्वार!::मेरे किशोर, मेरे कुमार!माँ के अंचल की ममता या यौवन के सुख का लोभ नहीं,जर्जरित जरा का पछतावा, बीते जीवन का क्षोभ नहीं;तुम वर्तमान के कठिन कर्म, छू सकता तुमको मोह कहीं?:कर सकता बंदी तुम्हें प्यार?::मेरे किशोर, मेरे कुमार!तुम नहीं डराए जा सकते शस्त्रों से, अत्याचारों से,तुम नहीं भुलाए जा सकते वीणा की मृदु झंकारों से;तुम नहीं सुलाए जा सकते थपकी से, प्यार-दुलारों से,:तुम सुनते पीड़ित की पुकार!::मेरे किशोर, मेरे कुमार!चल रहे, सींच आशा शोणित से, चरम लक्ष्य अपना पाने,कितने दुर्गम पथ पार किए, कितने वन-पर्वत हैं छाने!तुम हठी भगीरथ, नवयुग की गंगा के पीछे दीवाने!:इस तप पर जीवन रहे वार!::मेरे किशोर, मेरे कुमार!रे ‘प्रह्लाद’! दमन-ज्वाला में मंदस्मित बिखराते हो!रे ‘ध्रुव’! बाधा चीर इष्ट पथ पर बढ़ते ही जाते हो!रे ‘शुक’! प्रबल प्रलोभन में तुम अविचल धैर्य दिखाते हो!:तुम तप्त स्वर्ण, तुम निर्विकार!::मेरे किशोर, मेरे कुमार!जिसके सम्मुख आ छिन्न-भिन्न हों क्षण में युग-युग के बंधन,बह जाएँ अमित साम्राज्य प्रबल, ढह जाएँ समुन्नत स्वर्ण भवन;गौरव-सिंहासन, गर्व-मुकुट भू-लुंठित हों बनकर रजकण,:वह संघ-शक्ति तुम दुर्निवार!::मेरे किशोर, मेरे कुमार!उत्थान-पतन से पूर्ण बने, हो सुखकर अपनी राह तुम्हें,तुम सैनिक, हो न श्रांत कुटिया में टिक रहने की चाह तुम्हें!हर असफलता से मिले नई प्रेरणा, नया उत्साह तुम्हें,:तुम रण-सज्जित हो बार-बार!::मेरे किशोर, मेरे कुमार!क्या चिंता? दृष्टि उपेक्षा की डालें तुम पर ज्ञानी-ध्यानी!केवल रणभेरी याद रखे, भूले न समर का सेनानी!सौतेली माँ हो शांति भले ही, सुख मृगतृष्णा का पानी!:दें संधि-पत्र तुमको बिसार!::मेरे किशोर, मेरे कुमार!
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