"भीतर जागा दाता / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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|रचनाकार=अज्ञेय | |रचनाकार=अज्ञेय | ||
− | |संग्रह=आँगन के पार द्वार / अज्ञेय | + | |संग्रह=आँगन के पार द्वार / अज्ञेय; सुनहरे शैवाल / अज्ञेय |
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<poem> | <poem> | ||
मतियाया | मतियाया | ||
− | सागर | + | सागर लहराया । |
तरंग की पंखयुक्त वीणा पर | तरंग की पंखयुक्त वीणा पर | ||
− | पवन से भर उमंग से | + | पवन से भर उमंग से गाया । |
फेन-झालरदार मखमली चादर पर मचलती | फेन-झालरदार मखमली चादर पर मचलती | ||
− | किरण- | + | किरण-अप्सराएँ भारहीन पैरों से थिरकीं— |
− | जल पर आलते की छाप छोड़ पल-पल | + | |
+ | जल पर आलते की छाप छोड़ पल-पल बदलती । | ||
दूर धुँधला किनारा | दूर धुँधला किनारा | ||
− | झूम-झूम आया, डगमगाया | + | झूम-झूम आया, डगमगाया किया । |
मेरे भीतर जागा | मेरे भीतर जागा | ||
दाता | दाता | ||
बोला : | बोला : | ||
− | लो, यह सागर मैंने तुम्हें | + | लो, यह सागर मैंने तुम्हें दिया । |
− | हरियाली बिछ | + | हरियाली बिछ गई तराई पर, |
घाटी की पगडण्डी | घाटी की पगडण्डी | ||
लजाई और ओट हुई- | लजाई और ओट हुई- | ||
− | पर चंचला रह न सकी, फिर उझकी और झाँक | + | पर चंचला रह न सकी, फिर उझकी और झाँक गई । |
− | छरहरे पेड़ की | + | छरहरे पेड़ की नई रंगीली फुनगी |
− | आकाश के भाल पर जय-तिलक आँक | + | आकाश के भाल पर जय-तिलक आँक गई । |
गेहूँ की हरी बालियों में से | गेहूँ की हरी बालियों में से | ||
− | कभी राई की उजली, कभी सरसों की | + | कभी राई की उजली, कभी सरसों की पीली फूल-ज्योत्स्ना दिप गई, |
− | कभी लाली पोस्ते की सहसा चौंका | + | कभी लाली पोस्ते की सहसा चौंका गई— |
− | कभी लघु नीलिमा तीसी की चमकी और छिप | + | कभी लघु नीलिमा तीसी की चमकी और छिप गई । |
मेरे भीतर फिर जागा | मेरे भीतर फिर जागा | ||
दाता | दाता | ||
और मैंने फिर नीरव संकल्प किया : | और मैंने फिर नीरव संकल्प किया : | ||
− | लो, यह हरी-भरी | + | लो, यह हरी-भरी धरती—यह सवत्सा कामधेनु—मैंने तुम्हें दी |
आकाश भी तुम्हें दिया | आकाश भी तुम्हें दिया | ||
यह बौर, यह अंकुर, ये रंग, ये फूल, ये कोंपलें, | यह बौर, यह अंकुर, ये रंग, ये फूल, ये कोंपलें, | ||
ये दूधिया कनी से भरी बालियाँ, | ये दूधिया कनी से भरी बालियाँ, | ||
− | ये मैंने तुम्हें | + | ये मैंने तुम्हें दीं । |
आँकी-बाँकी रेखा यह, | आँकी-बाँकी रेखा यह, | ||
मेड़ों पर छाग-छौने ये किलोलते, | मेड़ों पर छाग-छौने ये किलोलते, | ||
यह तलैया, गलियारा यह | यह तलैया, गलियारा यह | ||
− | + | सारसों के जोड़े, मौन खड़े पर तोलते— | |
यह रूप जो केवल मैंने देखा है, | यह रूप जो केवल मैंने देखा है, | ||
यह अनुभव अद्वितीय, जो केवल मैंने जिया, | यह अनुभव अद्वितीय, जो केवल मैंने जिया, | ||
सब तुम्हें दिया। | सब तुम्हें दिया। | ||
− | एक स्मृति से मन पूत हो | + | एक स्मृति से मन पूत हो आया । |
− | एक श्रद्धा से | + | एक श्रद्धा से आहूत प्राणों ने गाया । |
− | एक प्यार की ज्वार दुर्निवार बढ़ | + | एक प्यार की ज्वार दुर्निवार बढ़ आया । |
मैं डूबा नहीं उमड़ा-उतराया, | मैं डूबा नहीं उमड़ा-उतराया, | ||
फिर भीतर | फिर भीतर | ||
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यह मैं, यह तुम, यह खिलना, | यह मैं, यह तुम, यह खिलना, | ||
यह ज्वार, यह प्लवन, | यह ज्वार, यह प्लवन, | ||
− | यह प्यार, यह अडूब | + | यह प्यार, यह अडूब उमड़ना— |
− | सब तुम्हें | + | सब तुम्हें दिया । |
सब | सब | ||
तुम्हें | तुम्हें | ||
− | + | दिया । | |
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21:28, 22 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण
मतियाया
सागर लहराया ।
तरंग की पंखयुक्त वीणा पर
पवन से भर उमंग से गाया ।
फेन-झालरदार मखमली चादर पर मचलती
किरण-अप्सराएँ भारहीन पैरों से थिरकीं—
जल पर आलते की छाप छोड़ पल-पल बदलती ।
दूर धुँधला किनारा
झूम-झूम आया, डगमगाया किया ।
मेरे भीतर जागा
दाता
बोला :
लो, यह सागर मैंने तुम्हें दिया ।
हरियाली बिछ गई तराई पर,
घाटी की पगडण्डी
लजाई और ओट हुई-
पर चंचला रह न सकी, फिर उझकी और झाँक गई ।
छरहरे पेड़ की नई रंगीली फुनगी
आकाश के भाल पर जय-तिलक आँक गई ।
गेहूँ की हरी बालियों में से
कभी राई की उजली, कभी सरसों की पीली फूल-ज्योत्स्ना दिप गई,
कभी लाली पोस्ते की सहसा चौंका गई—
कभी लघु नीलिमा तीसी की चमकी और छिप गई ।
मेरे भीतर फिर जागा
दाता
और मैंने फिर नीरव संकल्प किया :
लो, यह हरी-भरी धरती—यह सवत्सा कामधेनु—मैंने तुम्हें दी
आकाश भी तुम्हें दिया
यह बौर, यह अंकुर, ये रंग, ये फूल, ये कोंपलें,
ये दूधिया कनी से भरी बालियाँ,
ये मैंने तुम्हें दीं ।
आँकी-बाँकी रेखा यह,
मेड़ों पर छाग-छौने ये किलोलते,
यह तलैया, गलियारा यह
सारसों के जोड़े, मौन खड़े पर तोलते—
यह रूप जो केवल मैंने देखा है,
यह अनुभव अद्वितीय, जो केवल मैंने जिया,
सब तुम्हें दिया।
एक स्मृति से मन पूत हो आया ।
एक श्रद्धा से आहूत प्राणों ने गाया ।
एक प्यार की ज्वार दुर्निवार बढ़ आया ।
मैं डूबा नहीं उमड़ा-उतराया,
फिर भीतर
दाता खिल आया।
हँसा, हँस कर तुम्हें बुलाया :
लो, यह स्मृति, यह श्रद्धा, यह हँसी,
यह आहूत, स्पर्श-पूत भाव
यह मैं, यह तुम, यह खिलना,
यह ज्वार, यह प्लवन,
यह प्यार, यह अडूब उमड़ना—
सब तुम्हें दिया ।
सब
तुम्हें
दिया ।