{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=अजेय|संग्रह=}}{{KKCatKavita}}<poem>ऐसे बेखटके शामिल हो जाने का मन था 
उस बात चीत में जहाँ एक घोड़े वाला 
और कुछ खानगीर  थे ढाबे के चबूतरों पर 
ऐसे कि किसी को अहसास ही न हो 
 
वहाँ बात हो रही थी 
कैसे कोई कौम किसी दूसरे कौम से  अच्छा अच्छी हो सकता सकती है 
और कोई मुल्क किसी दूसरे मुल्क से 
कि कैसे जो अंगरेज अंगरेज़ थे 
उन से अच्छे थे मुसलमान 
और कैसे दोनो ही बेहतर थे हमसे 
क्या अस्सल एका था बाहर के की कौमों में मतलब ये जो मुसल्ले बगैरे वगैरे होते हैं 
कि हम तो देखने को ही एक जैसे थे ऊपर से 
और अन्दर खाते  फटे हुए 
सही गलत -ग़लत तो पता नहीं हो  भाई, 
हम अनपढ़ आदमी,  क्या पता ? 
पर देखाई देता है साफ साफ साफ़-साफ़ 
कि वो ताक़तवर है अभी भी