{{KKRachna
|रचनाकार=गोपालदास "नीरज"
|संग्रह=कारवां गुजर गया / गोपालदास "नीरज"}}{{KKCatKavita}}<poem>
बहुत दिनों तक हुआ प्रणय का रास वासना के आंगन में,<br>
फिर लूं क्यों एहसान व्यर्थ मैं साकी की चंचल चितवन का।<br>
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥
</poem>