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थाम कर चन्द सिक्के स्वयं हाथ में
लाज अपनी लुटाकर गयी द्रोपदी,
जनकी जानकी के सुभग देश में किस तरहघट रही रोज ही हैं अशुभ यह नयी त्रासदी,
स्वर सुनायी नहीं दे रहे रोष के,
घेर कर मार डाला गया छांव में
एक अभिमन्यु मेरी नजर के सामने,
रक्त से भीगते रह गये वक्त के
कांपते पल घृणा की हदें नापते,
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