मिलना-जुलना आज
बीन-बान लाता था लकड़ी
अपना दाऊ बागों से
धर अलाव पर आँच दिखातासबै बुलाता रागों भर देता था, फिरबच्चों को अनुरागों से
सब आते निज गाथा गातेछोट, बड़ों से इक दूजे पर नाज़गपियाते थे आँखिन भरे लिहाज
नैहर से जब आते मामासब दौड़े-दौड़े सब आतेफूले नहीं समाते मिलकरमिल कर
घण्टों-घण्टों बतियाते
भेंटें होतीं, हँसना होता
खुलते थे कुछ राज
जब जाता था घर से कोईपग पीछे-पीछे पग चलतेगाँव किनारे तक आकर सब आतेथे अपनी आँखे नम आँखें मलते
डूब गया तोड़ दिया है किस पोखर मेंकिसने गाँवों आपसदारी का वह साज
</poem>