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{{KKRachna
|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
|संग्रह=चांद का मुँह टेढ़ा है / गजानन माधव मुक्तिबोध
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<poem>
शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़
परित्यक्त सूनी बावड़ी
के भीतरी
ठण्डे अंधेरे में
बसी गहराइयाँ जल की...
सीढ़ियाँ डूबी अनेकों
उस पुराने घिरे पानी में...
समझ में आ न सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो।
लटकते घुग्घुओं के घोंसले
परित्यक्त भूरे गोल।<br>विद्युत शत पुण्यों का आभास <br> जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर<br>हवा में तैर <br> बनता है गहन संदेह<br>अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि<br>दिल में एक खटके सी लगी रहती।<br><br> बावड़ी की इन मुंडेरों पर<br>मनोहर हरी कुहनी टेक<br>बैठी है टगर<br>ले पुष्प तारे-श्वेत<br><br>
बावड़ी में वह स्वयं पागल प्रतीकों में निरन्तर कह रहा वह कोठरी में किस तरह अपना गणित करता रहा औ''(कविता संग्रहमर गया... वह सघन झाड़ी के कँटीले तम-विवर में मरे पक्षी-सा विदा ही हो गया वह ज्योति अनजानी सदा को सो गयी यह क्यों हुआ! क्यों यह हुआ!! मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य होना चाहता जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य, "चांद उसकी वेदना का मुँह टेढ़ा है" से)''स्रोत संगत पूर्ण निष्कर्षों तलक पहुँचा सकूँ। </poem>