भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ब्रह्मराक्षस / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
रचनाकारः [[गजानन माधव मुक्तिबोध]]
+
{{KKRachna
[[Category:कविताएँ]]
+
|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध  
[[Category:गजानन माधव मुक्तिबोध]]
+
|संग्रह=चांद का मुँह टेढ़ा है / गजानन माधव मुक्तिबोध
 +
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 +
शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़
 +
परित्यक्त सूनी बावड़ी
 +
के भीतरी
 +
ठण्डे अंधेरे में
 +
बसी गहराइयाँ जल की...
 +
सीढ़ियाँ डूबी अनेकों
 +
उस पुराने घिरे पानी में...
 +
समझ में आ न सकता हो
 +
कि जैसे बात का आधार
 +
लेकिन बात गहरी हो। 
  
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
+
बावड़ी को घेर  
 
+
डालें खूब उलझी हैं,  
शहर के उस ओर खँडहर की तरफ़<br>
+
खड़े हैं मौन औदुम्बर।  
परित्यक्त सूनी बावड़ी<br>
+
व शाखों पर  
के भीतरी<br>
+
ठण्डे अँधेरे में<br>
+
बसी गहराइयाँ जल की...<br>
+
सीढ़ियाँ डूबी अनेकों<br>
+
उस पुराने घिरे पानी में...<br>
+
समझ में आ न सकता हो<br>
+
कि जैसे बात का आधार<br>
+
लेकिन बात गहरी हो।<br><br>
+
 
+
बावड़ी को घेर<br>
+
डालें खूब उलझी हैं,<br>
+
खड़े हैं मौन औदुम्बर।<br>
+
व शाखों पर<br>
+
 
लटकते घुग्घुओं के घोंसले
 
लटकते घुग्घुओं के घोंसले
परित्यक्त भूरे गोल।<br>
+
परित्यक्त भूरे गोल।  
विद्युत शत पुण्यों का आभास <br>
+
विद्युत शत पुण्यों का आभास
जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर<br>
+
जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर  
हवा में तैर <br>
+
हवा में तैर
बनता है गहन संदेह<br>
+
बनता है गहन संदेह  
अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि<br>
+
अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि  
दिल में एक खटके सी लगी रहती।<br><br>
+
दिल में एक खटके सी लगी रहती।
 
+
बावड़ी की इन मुँडेरों पर<br>
+
मनोहर हरी कुहनी टेक<br>
+
बैठी है टगर<br>
+
ले पुष्प तारे-श्वेत<br><br>
+
  
उसके पास <br>
+
बावड़ी की इन मुंडेरों पर
लाल फूलों का लहकता झौंर--<br>
+
मनोहर हरी कुहनी टेक
मेरी वह कन्हेर...<br>
+
बैठी है टगर
वह बुलाती एक खतरे की तरफ जिस ओर<br>
+
ले पुष्प तारे-श्वेत 
अँधियारा खुला मुँह बावड़ी का<br>
+
शून्य अम्बर ताकता है।<br><br>
+
  
बावड़ी की उन गहराइयों में शून्य<br>
+
उसके पास 
ब्रह्मराक्षस एक पैठा है,<br>
+
लाल फूलों का लहकता झौंर--  
व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज,<br>
+
मेरी वह कन्हेर...
हड़बड़ाहट शब्द पागल से।<br>
+
वह बुलाती एक खतरे की तरफ जिस ओर
गहन अनुमानिता<br>
+
अंधियारा खुला मुँह बावड़ी का
तन की मलिनता<br>
+
शून्य अम्बर ताकता है। 
दूर करने के लिए प्रतिपल<br>
+
पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात<br>
+
स्वच्छ करने--<br>
+
ब्रह्मराक्षस<br>
+
घिस रहा है देह<br>
+
हाथ के पंजे बराबर,<br>
+
बाँह-छाती-मुँह छपाछप<br>
+
खूब करते साफ़,<br>
+
फिर भी मैल<br>
+
फिर भी मैल!!<br>
+
  
और... होठों से<br>
+
बावड़ी की उन गहराइयों में शून्य
अनोखा स्तोत्र कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चार,<br>
+
ब्रह्मराक्षस एक पैठा है,  
अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार,<br>
+
व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज,  
मस्तक की लकीरें<br>
+
हड़बड़ाहट शब्द पागल से।
बुन रहीं<br>
+
गहन अनुमानिता
आलोचनाओं के चमकते तार!!<br>
+
तन की मलिनता
उस अखण्ड स्नान का पागल प्रवाह....<br>
+
दूर करने के लिए प्रतिपल
प्राण में संवेदना है स्याह!!<br>
+
पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात
 +
स्वच्छ करने--
 +
ब्रह्मराक्षस
 +
घिस रहा है देह
 +
हाथ के पंजे बराबर,
 +
बाँह-छाती-मुँह छपाछप
 +
खूब करते साफ़,
 +
फिर भी मैल
 +
फिर भी मैल!!  
  
किन्तु, गहरी बावड़ी<br>
+
और... होठों से
की भीतरी दीवार पर<br>
+
अनोखा स्तोत्र कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चार,  
तिरछी गिरी रवि-रश्मि <br>
+
अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार,
के उड़ते हुए परमाणु, जब<br>
+
मस्तक की लकीरें
तल तक पहुँचते हैं कभी<br>
+
बुन रहीं
तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने <br>
+
आलोचनाओं के चमकते तार!!
झुककर नमस्ते कर दिया।<br><br>
+
उस अखण्ड स्नान का पागल प्रवाह....
 +
प्राण में संवेदना है स्याह!!
  
पथ भूलकर जब चाँदनी <br>
+
किन्तु, गहरी बावड़ी
की किरन टकराये<br>
+
की भीतरी दीवार पर  
कहीं दीवार पर,<br>
+
तिरछी गिरी रवि-रश्मि 
तब ब्रह्मराक्षस समझता है<br>
+
के उड़ते हुए परमाणु, जब
वन्दना की चाँदनी ने<br>
+
तल तक पहुँचते हैं कभी
ज्ञान गुरू माना उसे।<br>
+
तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने
 +
झुककर नमस्ते कर दिया। 
  
अति प्रफुल्लित कण्टकित तन-मन वही<br>
+
पथ भूलकर जब चांदनी 
करता रहा अनुभव कि नभ ने भी<br>
+
की किरन टकराये
विनत हो मान ली है श्रेष्ठता उसकी!!<br><br>
+
कहीं दीवार पर,
 +
तब ब्रह्मराक्षस समझता है  
 +
वन्दना की चांदनी ने
 +
ज्ञान गुरू माना उसे।
  
और तब दुगुने भयानक ओज से<br>
+
अति प्रफुल्लित कण्टकित तन-मन वही
पहचान वाला मन<br>
+
करता रहा अनुभव कि नभ ने भी  
सुमेरी-बेबिलोनी जन-कथाओं से<br>
+
विनत हो मान ली है श्रेष्ठता उसकी!! 
मधुर वैदिक ऋचाओं तक<br>
+
व तब से आज तक के सूत्र छन्दस्, मन्त्र, थियोरम,<br>
+
सब प्रेमियों तक<br>
+
कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी<br>
+
कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सार्त्र, गाँधी भी<br>
+
सभी के सिद्ध-अंतों का<br>
+
नया व्याख्यान करता वह<br>
+
नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम<br>
+
प्राक्तन बावड़ी की<br>
+
उन घनी गहराईयों में शून्य।<br><br>
+
  
......ये गरजती, गूँजती, आन्दोलिता<br>
+
और तब दुगुने भयानक ओज से
गहराईयों से उठ रही ध्वनियाँ, अतः<br>
+
पहचान वाला मन
उद्भ्रान्त शब्दों के नये आवर्त में<br>
+
सुमेरी-बेबिलोनी जन-कथाओं से  
हर शब्द निज प्रति शब्द को भी काटता,<br>
+
मधुर वैदिक ऋचाओं तक
वह रूप अपने बिम्ब से भी जूझ<br>
+
व तब से आज तक के सूत्र छन्दस्, मन्त्र, थियोरम,
विकृताकार-कृति<br>
+
सब प्रेमियों तक
है बन रहा<br>
+
कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी
ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ<br><br>
+
कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सार्त्र, गाँधी भी  
 +
सभी के सिद्ध-अंतों का
 +
नया व्याख्यान करता वह
 +
नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम
 +
प्राक्तन बावड़ी की
 +
उन घनी गहराईयों में शून्य। 
  
बावड़ी की इन मँडेरों पर<br>
+
......ये गरजती, गूँजती, आन्दोलिता
मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं<br>
+
गहराईयों से उठ रही ध्वनियाँ, अतः
टगर के पुष्प-तारे श्वेत<br>
+
उद्भ्रान्त शब्दों के नये आवर्त में
:::वे ध्वनियाँ!<br>
+
हर शब्द निज प्रति शब्द को भी काटता,
सुनते हैं करोंदों के सुकोमल फूल<br>
+
वह रूप अपने बिम्ब से भी जूझ
सुनता है उन्हे प्राचीन ओदुम्बर<br>
+
विकृताकार-कृति
सुन रहा हूँ मैं वही<br>
+
है बन रहा  
पागल प्रतीकों में कही जाती हुई<br>
+
ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ 
वह ट्रेजिडी<br>
+
जो बावड़ी में अड़ गयी।<br><br>
+
  
x    x      x <br><br>
+
बावड़ी की इन मुंडेरों पर
 +
मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं
 +
टगर के पुष्प-तारे श्वेत
 +
:::वे ध्वनियाँ!
 +
सुनते हैं करोंदों के सुकोमल फूल
 +
सुनता है उन्हे प्राचीन ओदुम्बर
 +
सुन रहा हूँ मैं वही
 +
पागल प्रतीकों में कही जाती हुई
 +
वह ट्रेजिडी
 +
जो बावड़ी में अड़ गयी।  
  
खूब ऊँचा एक जीना साँवला<br>
+
x    x      x   
:::उसकी अँधेरी सीढ़ीयाँ...<br>
+
वे एक आभ्यंतर निराले लोक की।<br>
+
एक चढ़ना औ' उतरना,<br>
+
पुनः चढ़ना औ' लुढ़कना,<br>
+
मोच पैरों में<br>
+
व छाती पर अनेकों घाव।<br>
+
बुरे-अच्छे-बीच का संघर्ष<br>
+
:::वे भी उग्रतर<br>
+
अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर<br>
+
गहन किंचित सफलता,<br>
+
अति भव्य असफलता<br>
+
...अतिरेकवादी पूर्णता<br>
+
:::की व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं...<br>
+
ज्यामितिक संगति-गणित<br>
+
की दृष्टि के कृत<br>
+
:::भव्य नैतिक मान<br>
+
आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक मान...<br>
+
...अतिरेकवादी पूर्णता की तुष्टि करना<br>
+
:::कब रहा आसान<br>
+
मानवी अंतर्कथाएँ बहुत प्यारी हैं!!<br><br>
+
  
रवि निकलता <br>
+
खूब ऊँचा एक जीना साँवला
लाल चिन्ता की रुधिर-सरिता<br>
+
:::उसकी अंधेरी सीढ़ियाँ...
प्रवाहित कर दीवारों पर,<br>
+
वे एक आभ्यंतर निराले लोक की।
उदित होता चन्द्र<br>
+
एक चढ़ना औ' उतरना,  
व्रण पर बाँध देता<br>
+
पुनः चढ़ना औ' लुढ़कना,
श्वेत-धौली पट्टियां<br>
+
मोच पैरों में
उद्विग्न भालों पर<br>
+
व छाती पर अनेकों घाव।
सितारे आसमानी छोर पर फैले हुए<br>
+
बुरे-अच्छे-बीच का संघर्ष
अनगिन दशमलव से<br>
+
:::वे भी उग्रतर
दशमलव-बिन्दुओं के सर्वतः<br>
+
अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर
पसरे हुए उलझे गणित मैदान में<br>
+
गहन किंचित सफलता,
मारा गया, वह काम आया,<br>
+
अति भव्य असफलता
और वह पसरा पड़ा है...<br>
+
...अतिरेकवादी पूर्णता
वक्ष-बाँहें खुली फैलीं<br>
+
:::की व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं...
एक शोधक की।<br><br>
+
ज्यामितिक संगति-गणित
 +
की दृष्टि के कृत
 +
:::भव्य नैतिक मान
 +
आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक मान...
 +
...अतिरेकवादी पूर्णता की तुष्टि करना
 +
:::कब रहा आसान
 +
मानवी अंतर्कथाएँ बहुत प्यारी हैं!! 
  
व्यक्तित्व वह कोमल स्फटिक प्रासाद सा,<br>
+
रवि निकलता 
प्रासाद में जीना<br>
+
लाल चिन्ता की रुधिर-सरिता
व जीने की अकेली सीढ़ीयाँ<br>
+
प्रवाहित कर दीवारों पर,
चढ़ना बहुत मुश्किल रहा।<br>
+
उदित होता चन्द्र
वे भाव-संगत तर्क-संगत<br>
+
व्रण पर बांध देता
कार्य सामंजस्य-योजित<br>
+
श्वेत-धौली पट्टियाँ
समीकरणों के गणित की सीढ़ियाँ<br>
+
उद्विग्न भालों पर
हम छोड़ दें उसके लिए।<br>
+
सितारे आसमानी छोर पर फैले हुए
उस भाव तर्क व कार्य-सामंजस्य-योजन-<br>
+
अनगिन दशमलव से
शोध में<br>
+
दशमलव-बिन्दुओं के सर्वतः
सब पण्डितों, सब चिन्तकों के पास<br>
+
पसरे हुए उलझे गणित मैदान में  
वह गुरू प्राप्त करने के लिए <br>
+
मारा गया, वह काम आया,  
भटका!!<br><br>
+
और वह पसरा पड़ा है...
 +
वक्ष-बाँहें खुली फैलीं
 +
एक शोधक की। 
  
किन्तु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी<br>
+
व्यक्तित्व वह कोमल स्फटिक प्रासाद-सा,
...लाभकारी कार्य में से धन,<br>
+
प्रासाद में जीना
धन में से हृदय-मन,<br>
+
जीने की अकेली सीढ़ियाँ
और, धन-अभिभूत अन्तःकरण में से<br>
+
चढ़ना बहुत मुश्किल रहा।
सत्य की झाईं <br>
+
वे भाव-संगत तर्क-संगत
:::निरन्तर चिलचिलाती थी।<br><br>
+
कार्य सामंजस्य-योजित
 +
समीकरणों के गणित की सीढ़ियाँ
 +
हम छोड़ दें उसके लिए।
 +
उस भाव तर्क व कार्य-सामंजस्य-योजन-
 +
शोध में
 +
सब पण्डितों, सब चिन्तकों के पास
 +
वह गुरू प्राप्त करने के लिए 
 +
भटका!! 
  
आत्मचेतस् किन्तु इस<br>
+
किन्तु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी
व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन...<br>
+
...लाभकारी कार्य में से धन,
विश्वचेतस् बे-बनाव!!<br>
+
धन में से हृदय-मन,
महत्ता के चरण में था<br>
+
और, धन-अभिभूत अन्तःकरण में से
विषादाकुल मन!<br>
+
सत्य की झाईं 
मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि<br>
+
:::निरन्तर चिलचिलाती थी। 
तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर<br>
+
बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य<br>
+
उसकी महत्ता!<br>
+
उस महत्ता का<br>
+
हम सरीखों के लिए उपयोग,<br>
+
उस आन्तरिकता का बताता मैं महत्व!!<br><br>
+
  
पिस गया वह भीतरी<br>
+
आत्मचेतस् किन्तु इस
औ' बाहरी दो कठिन पाटों बीच,<br>
+
व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन...
ऐसी ट्रेजिडी है नीच!!<br>
+
विश्वचेतस् बे-बनाव!!
 +
महत्ता के चरण में था
 +
विषादाकुल मन!
 +
मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि
 +
तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर
 +
बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य
 +
उसकी महत्ता!
 +
व उस महत्ता का
 +
हम सरीखों के लिए उपयोग,  
 +
उस आन्तरिकता का बताता मैं महत्व!!
  
बावड़ी में वह स्वयं<br>
+
पिस गया वह भीतरी
पागल प्रतीकों में निरन्तर कह रहा<br>
+
औ' बाहरी दो कठिन पाटों बीच,
वह कोठरी में किस तरह<br>
+
ऐसी ट्रेजिडी है नीच!!  
अपना गणित करता रहा<br>
+
औ' मर गया...<br>
+
वह सघन झाड़ी के कँटीले<br>
+
तम-विवर में<br>
+
मरे पक्षी-सा<br>
+
विदा ही हो गया<br>
+
वह ज्योति अनजानी सदा को सो गयी<br>
+
यह क्यों हुआ!<br>
+
क्यों यह हुआ!!<br>
+
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य<br>
+
होना चाहता<br>
+
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,<br>
+
उसकी वेदना का स्रोत<br>
+
संगत पूर्ण निष्कर्षों तलक<br>
+
पहुँचा सकूँ।<br><br>
+
  
''(कविता संग्रह, "चाँद का मुँह टेढ़ा है" से)''
+
बावड़ी में वह स्वयं
 +
पागल प्रतीकों में निरन्तर कह रहा
 +
वह कोठरी में किस तरह
 +
अपना गणित करता रहा
 +
' मर गया...
 +
वह सघन झाड़ी के कँटीले
 +
तम-विवर में
 +
मरे पक्षी-सा
 +
विदा ही हो गया
 +
वह ज्योति अनजानी सदा को सो गयी
 +
यह क्यों हुआ!
 +
क्यों यह हुआ!!
 +
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
 +
होना चाहता
 +
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,  
 +
उसकी वेदना का स्रोत
 +
संगत पूर्ण निष्कर्षों तलक
 +
पहुँचा सकूँ। 
 +
</poem>

10:39, 26 अप्रैल 2012 के समय का अवतरण

शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़
परित्यक्त सूनी बावड़ी
के भीतरी
ठण्डे अंधेरे में
बसी गहराइयाँ जल की...
सीढ़ियाँ डूबी अनेकों
उस पुराने घिरे पानी में...
समझ में आ न सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो।

बावड़ी को घेर
डालें खूब उलझी हैं,
खड़े हैं मौन औदुम्बर।
व शाखों पर
लटकते घुग्घुओं के घोंसले
परित्यक्त भूरे गोल।
विद्युत शत पुण्यों का आभास
जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर
हवा में तैर
बनता है गहन संदेह
अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि
दिल में एक खटके सी लगी रहती।

बावड़ी की इन मुंडेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक
बैठी है टगर
ले पुष्प तारे-श्वेत

उसके पास
लाल फूलों का लहकता झौंर--
मेरी वह कन्हेर...
वह बुलाती एक खतरे की तरफ जिस ओर
अंधियारा खुला मुँह बावड़ी का
शून्य अम्बर ताकता है।

बावड़ी की उन गहराइयों में शून्य
ब्रह्मराक्षस एक पैठा है,
व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज,
हड़बड़ाहट शब्द पागल से।
गहन अनुमानिता
तन की मलिनता
दूर करने के लिए प्रतिपल
पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात
स्वच्छ करने--
ब्रह्मराक्षस
घिस रहा है देह
हाथ के पंजे बराबर,
बाँह-छाती-मुँह छपाछप
खूब करते साफ़,
फिर भी मैल
फिर भी मैल!!

और... होठों से
अनोखा स्तोत्र कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चार,
अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार,
मस्तक की लकीरें
बुन रहीं
आलोचनाओं के चमकते तार!!
उस अखण्ड स्नान का पागल प्रवाह....
प्राण में संवेदना है स्याह!!

किन्तु, गहरी बावड़ी
की भीतरी दीवार पर
तिरछी गिरी रवि-रश्मि
के उड़ते हुए परमाणु, जब
तल तक पहुँचते हैं कभी
तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने
झुककर नमस्ते कर दिया।

पथ भूलकर जब चांदनी
की किरन टकराये
कहीं दीवार पर,
तब ब्रह्मराक्षस समझता है
वन्दना की चांदनी ने
ज्ञान गुरू माना उसे।

अति प्रफुल्लित कण्टकित तन-मन वही
करता रहा अनुभव कि नभ ने भी
विनत हो मान ली है श्रेष्ठता उसकी!!

और तब दुगुने भयानक ओज से
पहचान वाला मन
सुमेरी-बेबिलोनी जन-कथाओं से
मधुर वैदिक ऋचाओं तक
व तब से आज तक के सूत्र छन्दस्, मन्त्र, थियोरम,
सब प्रेमियों तक
कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी
कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सार्त्र, गाँधी भी
सभी के सिद्ध-अंतों का
नया व्याख्यान करता वह
नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम
प्राक्तन बावड़ी की
उन घनी गहराईयों में शून्य।

......ये गरजती, गूँजती, आन्दोलिता
गहराईयों से उठ रही ध्वनियाँ, अतः
उद्भ्रान्त शब्दों के नये आवर्त में
हर शब्द निज प्रति शब्द को भी काटता,
वह रूप अपने बिम्ब से भी जूझ
विकृताकार-कृति
है बन रहा
ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ

बावड़ी की इन मुंडेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं
टगर के पुष्प-तारे श्वेत
वे ध्वनियाँ!
सुनते हैं करोंदों के सुकोमल फूल
सुनता है उन्हे प्राचीन ओदुम्बर
सुन रहा हूँ मैं वही
पागल प्रतीकों में कही जाती हुई
वह ट्रेजिडी
जो बावड़ी में अड़ गयी।

x x x

खूब ऊँचा एक जीना साँवला
उसकी अंधेरी सीढ़ियाँ...
वे एक आभ्यंतर निराले लोक की।
एक चढ़ना औ' उतरना,
पुनः चढ़ना औ' लुढ़कना,
मोच पैरों में
व छाती पर अनेकों घाव।
बुरे-अच्छे-बीच का संघर्ष
वे भी उग्रतर
अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर
गहन किंचित सफलता,
अति भव्य असफलता
...अतिरेकवादी पूर्णता
की व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं...
ज्यामितिक संगति-गणित
की दृष्टि के कृत
भव्य नैतिक मान
आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक मान...
...अतिरेकवादी पूर्णता की तुष्टि करना
कब रहा आसान
मानवी अंतर्कथाएँ बहुत प्यारी हैं!!

रवि निकलता
लाल चिन्ता की रुधिर-सरिता
प्रवाहित कर दीवारों पर,
उदित होता चन्द्र
व्रण पर बांध देता
श्वेत-धौली पट्टियाँ
उद्विग्न भालों पर
सितारे आसमानी छोर पर फैले हुए
अनगिन दशमलव से
दशमलव-बिन्दुओं के सर्वतः
पसरे हुए उलझे गणित मैदान में
मारा गया, वह काम आया,
और वह पसरा पड़ा है...
वक्ष-बाँहें खुली फैलीं
एक शोधक की।

व्यक्तित्व वह कोमल स्फटिक प्रासाद-सा,
प्रासाद में जीना
व जीने की अकेली सीढ़ियाँ
चढ़ना बहुत मुश्किल रहा।
वे भाव-संगत तर्क-संगत
कार्य सामंजस्य-योजित
समीकरणों के गणित की सीढ़ियाँ
हम छोड़ दें उसके लिए।
उस भाव तर्क व कार्य-सामंजस्य-योजन-
शोध में
सब पण्डितों, सब चिन्तकों के पास
वह गुरू प्राप्त करने के लिए
भटका!!

किन्तु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी
...लाभकारी कार्य में से धन,
व धन में से हृदय-मन,
और, धन-अभिभूत अन्तःकरण में से
सत्य की झाईं
निरन्तर चिलचिलाती थी।

आत्मचेतस् किन्तु इस
व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन...
विश्वचेतस् बे-बनाव!!
महत्ता के चरण में था
विषादाकुल मन!
मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि
तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर
बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य
उसकी महत्ता!
व उस महत्ता का
हम सरीखों के लिए उपयोग,
उस आन्तरिकता का बताता मैं महत्व!!

पिस गया वह भीतरी
औ' बाहरी दो कठिन पाटों बीच,
ऐसी ट्रेजिडी है नीच!!

बावड़ी में वह स्वयं
पागल प्रतीकों में निरन्तर कह रहा
वह कोठरी में किस तरह
अपना गणित करता रहा
औ' मर गया...
वह सघन झाड़ी के कँटीले
तम-विवर में
मरे पक्षी-सा
विदा ही हो गया
वह ज्योति अनजानी सदा को सो गयी
यह क्यों हुआ!
क्यों यह हुआ!!
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,
उसकी वेदना का स्रोत
संगत पूर्ण निष्कर्षों तलक
पहुँचा सकूँ।