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{{KKRachna
|रचनाकार=तुलसीदास
}}|संग्रह=विनयावली / तुलसीदास {{KKCatKavita}}* [[Category:लम्बी रचनाविनयावली / तुलसीदास / पद 141 से 150 तक / पृष्ठ 1]]{{KKPageNavigation|पीछे=* [[विनयावली() / तुलसीदास / पद 141 से 150 तक / पृष्ठ 142]]|आगे=* [[विनयावली() / तुलसीदास / पद 141 से 150 तक / पृष्ठ 163]]|सारणी=* [[विनयावली() / तुलसीदास }}<poem>'''/ पद 141 से 150 तक'''/ पृष्ठ 4]] (* [[विनयावली / तुलसीदास / पद 141 से 150) रामभद्र! मेहिं आपनो सोच है अरू नाहीं । जीव सकल संतापके भाजन जग माहीं।। नातो बड़े समर्थ सों इक ओर किधौं हूँ। तोको मोसे अति घने मोको एकै तूँ।। बडी़ गलानि हिय हानि है सरबग्य गुसाईं।  कूर कुलसेवक कहत हौं सेवककी नाईं।  भलो पोच रामको कहैं मोहि सब नरनारी।।  बिगरे सेवक स्वान ज्यों साहिब-सिर गारी।।  असमंजस मनको मिटै सो उपाय न सूझै।  दीनबंधु! कीजै सोई बनि परै जो बूझे।।  बिरूदावली बिलोकिये तिन्हमें कोउ हौं हौ।  तुलसी प्रभुको परिहर्यो सरनागत सो हौ।।  <तक /poem>पृष्ठ 5]]
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