राग बिलावलराग धनाश्री
अपन जान मैं बहुत करी।
चरन कमल बंदौ कौन भांति हरि राई।जाकी कृपा पंगु गिरि लंघैतुम्हारी, आंधर कों सब कछु दरसाई॥बहिरो सुनै, मूक पुनि बोलै, रंक चले सिर छत्र धराई।सूरदास सो स्वामी करुनामय, बार-बार बंदौं तेहि पाई॥समुझी न परी॥
भावार्थ :-- जिस पर श्रीहरि की कृपा हो जाती हैदूरि गयौ दरसन के ताईं, उसके लिए असंभव भी संभव हो जाता है। लूला-लंगड़ा मनुष्य पर्वत को भी लांघ जाता है। अंधे को गुप्त और प्रकट सबकुछ देखने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। बहरा सुनने लगता है। गूंगा बोलने लगता है कंगाल राज-छत्र धारण कर लेता हे। ऐसे करूणामय प्रभु की पद-वन्दना कौन अभागा न करेगा।व्यापक प्रभुता सब बिसरी।
शब्दार्थ मनसा बाचा कर्म अगोचर, सो मूरति नहिं नैन धरी॥ गुन बिनु गुनी, सुरूप रूप बिनु नाम बिना श्री स्याम हरी। कृपासिंधु अपराध अपरिमित, छमौ सूर तैं सब बिगरी॥ भावार्थ :-राई= राजा। पंगु = लंगड़ा। लघै =लांघ जाता जीव मानता हैकि अपनी शक्ति पर प्रभु प्राप्ति की उसने अनेक साधनाएं की, पार कर जाता परअन्त में यह उसकी भ्रांत धारणा ही निकली। प्रभु तो सर्वत्र व्यापक है पर यह कहां-कहां उसके दर्शन को भटकता फिरा। समझ में न आया कि वह निर्गुण होते हुए भी सगुण है, निराकार होते हुए भी साकार है। अज्ञान में तो अपराध हुए ही ज्ञानाभिमान के द्वारा मूक भी कम अपराध नहीं हुए। सो अब तो बिगड़ी हुई बात क्षमा मांगने से ही बनेगी। शब्दार्थ :- ताईं =गूंगा। रंक लिए। प्रभुता =निर्धन, गरीब, कंगाल। छत्र धराई ईश्वरता। मनसा = राज-छत्र धारण करके।मनसे। वाचा =वाणी से।तेहि अगोचर = इन्द्रियजन्य ज्ञान से परे। धरी = तिनके। पाई धारणा की। छमौ =चरण।क्षमा करो।