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− | + | आँखों के छोर से | |
पता भी नहीं चलता | पता भी नहीं चलता | ||
− | कब | + | कब आँसू टपक आता है और तुम कहते हो |
− | मैं सपने | + | मैं सपने देखूँ । |
तुम देख आए तारे ज़मी पे | तुम देख आए तारे ज़मी पे | ||
तो तुम्हें लगा कि सपने | तो तुम्हें लगा कि सपने | ||
− | + | यूँ ही संगीत की थिरकनों के साथ उग आते हैं । | |
− | नहीं, ऐसे नहीं उगते | + | नहीं, ऐसे नहीं उगते सपने । |
− | मैं औरत | + | मैं औरत हूँ |
− | अकेली | + | अकेली हूँ |
− | पत्रकार | + | पत्रकार हूँ । |
− | मैं दुनिया भर के सामने फौलादी हो सकती | + | मैं दुनिया भर के सामने फौलादी हो सकती हूँ |
पर अपने कमरे के शीशे के सामने | पर अपने कमरे के शीशे के सामने | ||
मेरा जो सच है, | मेरा जो सच है, | ||
वह सिर्फ मुझे ही दिखता है | वह सिर्फ मुझे ही दिखता है | ||
− | और उसी सच में, सच | + | और उसी सच में, सच कहूँ, |
− | सपने कहीं नहीं | + | सपने कहीं नहीं होते । |
− | तुमसे बरसों मैनें यही | + | तुमसे बरसों मैनें यही माँगा था |
− | मुझे औरत बनाना, | + | मुझे औरत बनाना, आँसू नहीं |
− | तब मैं | + | तब मैं कहाँ जानती थी |
− | दोनों एक ही | + | दोनों एक ही हैं । |
बस, अब मुझे मत कहो | बस, अब मुझे मत कहो | ||
− | कि मैं | + | कि मैं देखूँ सपने |
− | मैं अकेली ही ठीक | + | मैं अकेली ही ठीक हूँ |
− | अधूरी, हवा सी | + | अधूरी, हवा-सी भटकती । |
पर तुम यह सब नहीं समझोगे | पर तुम यह सब नहीं समझोगे | ||
समझ भी नहीं सकते | समझ भी नहीं सकते | ||
क्योंकि तुम औरत नहीं हो | क्योंकि तुम औरत नहीं हो | ||
− | तुमने औरत के गर्म | + | तुमने औरत के गर्म आँसू की छलक |
− | अपनी हथेली पर रखी ही | + | अपनी हथेली पर रखी ही कहाँ ? |
अब रहने दो | अब रहने दो | ||
रहने दो कुछ भी कहना | रहने दो कुछ भी कहना | ||
− | बस मुझे | + | बस मुझे ख़ुद में छलकने दो |
− | और अधूरा ही रहने | + | और अधूरा ही रहने दो । |
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23:06, 16 जुलाई 2012 के समय का अवतरण
आँखों के छोर से
पता भी नहीं चलता
कब आँसू टपक आता है और तुम कहते हो
मैं सपने देखूँ ।
तुम देख आए तारे ज़मी पे
तो तुम्हें लगा कि सपने
यूँ ही संगीत की थिरकनों के साथ उग आते हैं ।
नहीं, ऐसे नहीं उगते सपने ।
मैं औरत हूँ
अकेली हूँ
पत्रकार हूँ ।
मैं दुनिया भर के सामने फौलादी हो सकती हूँ
पर अपने कमरे के शीशे के सामने
मेरा जो सच है,
वह सिर्फ मुझे ही दिखता है
और उसी सच में, सच कहूँ,
सपने कहीं नहीं होते ।
तुमसे बरसों मैनें यही माँगा था
मुझे औरत बनाना, आँसू नहीं
तब मैं कहाँ जानती थी
दोनों एक ही हैं ।
बस, अब मुझे मत कहो
कि मैं देखूँ सपने
मैं अकेली ही ठीक हूँ
अधूरी, हवा-सी भटकती ।
पर तुम यह सब नहीं समझोगे
समझ भी नहीं सकते
क्योंकि तुम औरत नहीं हो
तुमने औरत के गर्म आँसू की छलक
अपनी हथेली पर रखी ही कहाँ ?
अब रहने दो
रहने दो कुछ भी कहना
बस मुझे ख़ुद में छलकने दो
और अधूरा ही रहने दो ।