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{{KKRachna
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=भग्नदूत / अज्ञेय
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<poem>
दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।
तब ललाट की कुंचित अलकों-
तेरे ढरकीले आँचल को,
तेरे पावन-चरण कमल को,
छू कर धन्य-भाग अपने को लोग मानते हैं सब के सब।
 
मैं तो केवल तेरे पथ से
उड़ती रज की ढेरी भर के,
चूम-चूम कर संचय कर के
रख भर लेता हूँ मरकत-सा मैं अन्तर के कोषों में तब।
 
पागल झंझा के प्रहार सा,
सान्ध्य-रश्मियों के विहार-सा,
सब कुछ ही यह चला जाएगा-
इसी धूलि में अन्तिम आश्रय मर कर भी मैं पाऊँगा दब !
दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब। <br>
तब ललाट की कुंचित अलकों-<br>
तेरे ढरकीले आँचल को, <br>
तेरे पावन-चरण कमल को, <br>
छू कर धन्य-भाग अपने को लोग मानते हैं सब के सब।<br>
मैं तो केवल तेरे पथ से <br>
उड़ती रज की ढेरी भर के, <br>
चूम-चूम कर संचय कर के <br>
रख भर लेता हूँ मरकत-सा मैं अन्तर के कोषों में तब। <br>
पागल झंझा के प्रहार सा, <br>
सान्ध्य-रश्मियों के विहार-सा, <br>
सब कुछ ही यह चला जाएगा-<br>
इसी धूलि में अन्तिम आश्रय मर कर भी मैं पाऊँगा दब ! <br>
दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।
 
'''दिल्ली जेल, दिसम्बर, 1931'''
</poem>
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