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{{KKRachna
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=इत्यलम् / अज्ञेय}} {{KKCatKavita}}<poem> मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,<br>मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ?<br>काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,<br>मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?<br><br>
मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ?<br>मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ?<br>मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने ?<br>या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने ?<br><br>
पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ?<br>नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ?<br>मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने-<br>फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने !<br><br>
अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-<br>क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ?<br>वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-<br>वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है<br><br>
मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-<br>मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है !<br>मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ<br>कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँ<br><br>
मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने<br>इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने !<br>भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-<br>तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने  '''बड़ोदरा, 15 जुलाई, 1937'''<br><br/poem>
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