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"जीवन का मालिन्य / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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मैं अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिए बलि हो जाना चाहता हूँ। तुम मेरे बलिदान का खोखलापन दिखा कर मेरी हत्या कर रही हो!
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जीवन का मालिन्य आज मैं क्यों धो डालूँ?
हम दोनों एक-दूसरे के आखेट हैं, और अनिवार्य, अटल मनोनियोग से एक-दूसरे का पीछा कर रहे हैं।
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उर में संचित कलुषनिधि को क्यों खो डालूँ?
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कहाँ, कौन है जिस को है मेरी भी कुछ परवाह-
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जिस के उर में मेरी कृतियाँ जगा सकें उत्साह?
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विश्व-नगर की गलियों में खोये कुत्ते-सा
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झंझा की प्रमत्त गति में उलझे पत्ते-सा
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हटो, आज इस घृणा-पात्र को जाने भी दो टूट-
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भव-बन्धन से साभिमान ही पा लेने दो छूट!
  
'''19 जुलाई, 1933'''
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'''दिल्ली जेल, 23 अक्टूबर, 1932'''
 
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20:08, 30 जुलाई 2012 के समय का अवतरण

 जीवन का मालिन्य आज मैं क्यों धो डालूँ?
उर में संचित कलुषनिधि को क्यों खो डालूँ?
कहाँ, कौन है जिस को है मेरी भी कुछ परवाह-
जिस के उर में मेरी कृतियाँ जगा सकें उत्साह?
विश्व-नगर की गलियों में खोये कुत्ते-सा
झंझा की प्रमत्त गति में उलझे पत्ते-सा
हटो, आज इस घृणा-पात्र को जाने भी दो टूट-
भव-बन्धन से साभिमान ही पा लेने दो छूट!

दिल्ली जेल, 23 अक्टूबर, 1932