कुछ ने कहा है मतवाला<br>
पर कोलाहाल में गूँज रहा था बस<br>
निराला...निराला...निराला ।<br><br>'''2.<br><br>वह निराला नहीं था तो<br>निराला जैसा क्यों<br>दिख रहा था<br>वह निराला नहीं था तो<br>कुहरे पर क्यों<br> लिख रहा था ।<br><br>'''3.<br><br>धीरे-धीरे छँटी भीड़<br>अब वह था और दिशाएँ थीं<br>कुछ बांध रोड पर गाएँ थीं<br>जो बहिला थीं<br>काँजी हाउस की ओर<br> उन्हें हाँका जा चुका था<br>वे हड्डी थीं और चमड़ा थीं<br>उनकी रंभाहट से बिध कर<br>खड़ा रहा वह बेघर<br> फिर धीरे-धीरे चढ़ी रात<br>वह कृष्ण पाख की विकट रात<br>था दूर-दूर तक अंधियारा<br>अशरण था वह दुत्कारा ।<br><br>'''4.<br><br>जाने को जा सकता था घर<br>पर मन में बैठ गया था डर<br>लोटे से मारेगा बेटा<br>बहू कहेगी दुर...दुर...दुर... ।<br>सुनने सहने की शक्ति नहीं<br>आँखें झरती थीं झर-झर<br>बूढे़ पीपल के तरु तर<br>चुपचाप सो गया वह थक कर ।<br><br>'''5.<br><br>रात गए जागा वह बूढ़ा<br>खिसका अपनी जगह से<br>जैसे खिसकते हैं तारे<br>बिना सहारे<br>और गंगा के कचार की तरफ़ बढ़ गया<br>फिर वहाँ गायों को झुंड नहीं था<br>रंभाहट नहीं थी<br>पर लगता था वह घिरा है<br>देखने वालों की भीड़ से<br>गायों की रंभाहट चादर बन कर<br>छाई है उस निराला जैसे आदमी पर<br><br>कैसा-कैसा हो आया मन<br>मैं वहाँ क्या कर रहा था<br>जब वो आदमी मर रहा था<br>मैं सच में वहाँ था या<br>या कोई सपना निथर रहा था<br>अगर यह सपना नहीं था तो<br>वह आदमी कौन था जो<br>अपना था<br>अंधकार में वह क्यों रोया था<br>उसने सचमुच में कुछ खोया था ।<br><br>'''6.<br><br>कई दिन हुए घर से निकले<br>पर कोई उसे ढूंढ़ने नहीं निकला<br>न ही पूछने आया कोई दारागंज से<br>न ही कोई आया गढ़ाकोला से<br>महिसादल से<br>न निकला कुल्ली भाट न बिल्लेसुर बकरिहा<br>न चतुरी चमार<br>सरोज तो आ सकती थी खोजते हुए<br>पर भूल रहा हूँ<br>वह तो नहीं रही थी पहले ही<br>उसका तर्पण तो किया था बूढ़े ने ही<br>अब कोई नहीं जो ले खोज ख़बर<br>अब जाए कहाँ क्या करे काम<br>किसको बतलाए नाम-धाम<br>उससे किसी को स्नेह नहीं<br>वह पानी वाला मेह नहीं<br>उसका कोई इतिहास नहीं<br>कुछ छोटे-छोटे प्रश्नों के<br>उत्तर की कोई आस नहीं<br>घ्हटना यह कोई ख़ास नहीं<br>आए दिन होता है लाला<br>कुछ सोचो मत अब जाओ घर<br>गंगा की रेती पर वृद्ध प्रवर<br>मरता है तो मरने दो<br>बस अपनी नौका को तरने दो ।<br><br>'''7.<br><br>उसकी गाँठ में कुछ नहीं था<br>वह किसी को नहीं दे सकता था कुछ भी<br>आशीष और शाप के सिवा<br>वह बुझ गया था<br>छिन गई थी उसकी चमक-दमक<br>कि दुनिया में<br><br>वह आपकी तरह था<br>एक कटी बाँह को सहलाती<br>दूसरी बाँह की तरह था<br>वह ऎसे था जैसे<br>धरती के बनने से जागा हो<br>वह ऎसे था जैसे<br>कपड़े के थान से नुच गया धागा हो ।<br><br>'''8<br><br>पुलिन पर वह आज़ाद था<br>तारों की तरह<br>गायों की तरह<br>उसे हाँकने वाला कौन था<br>उस अंधेरे गंगा के कछार में<br>उसकी खोज में झांकने वाला कौन था ।<br><br>'''9.<br><br>मैं उस बेघर को ला सकता था घर<br>चलो न लाता तो<br>उसके घावों को सहला तो सकता था<br>पूछ तो सकता था कि वह रोता क्यों है<br>वह अपने को अंधकार में खोता क्यों है<br>पर मैं भी दर्शक था<br>देखता रह<br>उस बूढ़े को<br>रोते हुए<br>देखता रहा उसे अंधकार में खोते हुए ।<br><br>'''10.<br><br>धरती का यह कौन-सा कोना है<br>जहाँ बूढे़ रोते हैं<br>घरों से निकल कर<br> रोती हैं औरतें चूल्हों में सुलग कर<br>वह कौन-सा नगर कौन-सा शहर है<br>जहाँ लोगों को चुप कराने का<br>चलन नहीं रह बाक़ी<br>रातों में जाग कर रोती है<br>अब भी<br>प्रेमचन्द की बूढ़ी काकी<br>जहाँ रोता है निराला-सा वह दढ़ियल<br><br>'''11.<br><br>कुछ दिनों बाद वह बूढ़ा मुझे दिखा<br>दारागंज में ठाकुर कमला सिंह के यहाँ<br>ठठवारी करते<br>भैंस का गोबर उठाते<br>सानी-पानी करते<br>रखवारी करते<br>रोटी पर रख कर दाल-भात खाते<br>झाड़ू लगाते<br>अगले दिन वह दिखा<br>हनुमान मन्दिर के बाहर<br>हात पसारे दाँत चियारे<br>अगले दिन वह मिला<br>नेहरू का आनन्द भवन अगोरते हुए<br>नोचते हुए घास<br>अगले दिन दिखा<br>पंत उद्यान में पंत से रोते दुखड़ा<br>अगले दिन वह दिखा हिन्दी विभाग के आगे<br>अपनी सही व्याख्या के लिए अनशन पर बैठे<br>नारा लगाते<br>ऎंठे अध्यापकों से लात खा कर भी डटा था वह<br>पर अध्यापक उसे समझने के लिए<br>नहीं थे तैयार...<br><br>'''12<br><br>हिन्दी विभाग से वह कहाँ गुम हुआ<br>कह नहीं सकता<br>पर बिना बताए रह भी नहीं सकता<br>आख़िरी बार उसे देखा गया<br>रसूलाबाद घाट पर चंद्रशेखर आज़ाद की<br>चिता भूमि पर गुम-सुम बैठे<br>उसके पास एक पोथी थी<br>एक चटाई थी<br>साहित्यकारों की संसद में नई<br> पोस्ट आई थी<br>नज़दीक में ही कई चिताएँ जल रही थीं<br>पानी पर कई नावें चल रही थीं<br>चल रहा था क्या उसके मन में<br>कहना कठिन है<br>यह समय किसी भी निराला के लिए<br>दुर्दिन है ।<br><br>'''13<br><br>रसूलाबाद घाट के बाद<br>निराला जैसा दिख रहे<br>उस आदमी की कोई थाह नहीं मिली<br>वह गुम गया कहीं अपनों का त्यागा अभागा<br>रह गए कुछ सवाल जिनके जवाब कौन दे<br>कौन बताएगा कि<br>वो बूढ़ा बोलता क्यों नहीं था अपने दुखों पर<br>क्यों था चुप<br>क्यों रहता था छिपकर<br>उसके अपराध क्या थे<br>क्यों जीता जाता था<br>उसके साध क्या थे<br>हालाँकि ये सारे सवाल पूछते हुए डरता हूँ<br>जब उससे नहीं पूछ पाया<br>तो अब यह सवाल क्यों उठाता हूँ<br>जैसे सब भूल गए हैं उसे<br>मैं भी क्यों नहीं भूल जाता हूँ<br>क्या ज़रूरत है अब<br>किसी बेघर बूढ़े की बात उठाने की<br>क्या ज़रूरत है उस बूढ़े को ढूंढ़ने की<br>इस देश में एक वही तो नहीं था दुत्कारा ।<br><br>'''14<br><br>रसूलाबाद घाट की सीढ़ियों पर<br>लिखा मिला उसी जगह<br>खड़िया से एक वाक्य<br>जिस पर थोड़ी दुविधा है<br>कुछ का कहना है कि यह<br>उसी पागल बूढ़े के हाथ का<br>लेखा है<br>कुछ का कहना है कि<br>यह घाट पर रहने वालों में से किसी का लिखा है<br>बकवास है<br>लिखा था वहाँ--<br>'जितना नहीं मरा था मैं<br>भूख और प्यास से<br>उससे कहीं ज़्यादा मरा था मैं<br>अपनों के उपहास से'<br><br><br>बहिला=वे गायें जो गर्भ धारण नहीं कर सकतीं