{{KKRachna
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=अरी ओ करुणा प्रभामय / अज्ञेय
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<poem>
हम कृति नहीं हैं
कृतिकारों के अनुयायी भी नहीं कदाचित्।
क्या हों, विकल्प इस का हम करें, हमें कब
इस विलास का योग मिला ?—जो
हों, इतने भर को ही
भरसक तपते-जलते रहे—रहे गये ?
हम हुए, यही बस,
नामहीन हम, निर्विशेष्य,
कुछ हमने किया नहीं।
हम कृती नहीं हैं <br>या केवल कृतिकारों के अनुयायी भी नहीं कदाचित्।<br>क्या हों, विकल्प इस मानव होने की पीड़ा का हम करें, हमें कब<br>एक नया स्तर खोलाःनया रन्ध्र इस विलास का योग मिला ?—जो<br>रुँधे दर्द की भी दिवार में फोड़ाः होंउस से फूटा जो आलोक, इतने भर को ही <br>उसेभरसक तपते-जलते रहे—रहे गये ?<br>-छितरा जाने से पहले— हम हुए, यही बस, <br>निर्निमेष आँखों से देखानामहीन हम, निर्विशेष्य, <br>निर्मम मानस से पहचाना कुछ हमने किया नहीं।<br><br>नाम दिया।
चाहे
तकने में आँखें फूट जायें,
चाहे
अर्थ भार से तन कर भाषा झिल्ली फट जाये,
चाहे
परिचित को गहरे उकेरते
संवेदना का प्याला टूट जायः
देखा
पहचाना
नाम दिया।
या केवल <br>कृति नहीं हैः मानव होने की पीड़ा का एक नया स्तर खोलाः<br>नया रन्ध्र इस रुँधे दर्द की भी दिवार में फोड़ाः <br>उस से फूटा जो आलोकहों, उसे<br>बस इतने भर को हमआजीवन तपते--छितरा जाने से पहले— <br>निर्निमेष आँखों से देखा<br>निर्मम मानस से पहचाना <br>नाम दिया।<br><br>जलते रहे—रह गये।
चाहे <br>तकने '''दिल्ली (बस में आँखें फूट जायें), <br>चाहे <br>अर्थ भार से तन कर भाषा झिल्ली फट जाये26 अक्टूबर, <br>1956'''चाहे <br/poem>परिचित को गहरे उकेरते<br>संवेदना का प्याला टूट जायः <br>देखा <br>पहचाना <br>नाम दिया।<br><br> कृती नहीं हैः <br>हों, बस इतने भर को हम<br>आजीवन तपते-जलते रहे—रह गये।