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बड़ी लम्बी राह / अज्ञेय

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{{KKRachna
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=अरी ओ करुणा प्रभामय / अज्ञेय
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<poem>
न देखो लौट कर पीछे
वहाँ कुछ नहीं दीखेगा
न कुछ है देखने को
उन लकीरों के सिवा, जो राह चलते
हमारे ही चेहरों पर लिख गयीं
अनुभूति के तेज़ाब से
न देखो लौट कर पीछे<br>वहाँ कुछ नहीं दीखेगा<br>न कुछ है देखने को<br>उन लकीरों के सिवा, जो राह चलते<br>हमारे ही चेहरों पर लिख गयीं<br> अनुभूति के तेज़ाब से<br><br>बड़ी लम्बी राह।
राह चलते <br>गा रही थी एक दिन बड़ी लम्बी राह।<br><br>उस छोर बेपरवाह, लोभनीय, सुहावनी, रूमानियत की चाह --अवगुण्ठवमयी ठगिनी !— एक मीठी रागिनी
गा रही थी एक दिन<br>बड़ी लम्बी राह। उस छोर बेपरवाह,<br>आज सँकरे मोड़ पर यह लोभनीय, सुहावनी, रूमानियत की चाह<br>वास्तविक विडम्बना --अवगुण्ठवमयी ठगिनी !—<br>रो रही है : एक मीठी रागिनी<br><br>नंगी डाकिनी
बड़ी लम्बी राह।<br>राह : आह, आज सँकरे मोड़ पनाह इस पर यह<br>नहीं— वास्तविक विडम्बना <br>कोई ठौर जिस पर छाँह हो। रो रही है :<br>कौन आँके मोल उस के शोध का मूल्य के भी मूल्य की जो थाह पाने एक नंगी डाकिनी <br><br>मरु-सागर उलीच रहा अकेला ? जल जहाँ है नहीं क्या वह अब्धि है ? रेत क्या उपलब्धि है ?
बड़ी लम्बी राह : आह,<br>पनाह इस पर नहीं—<br>कोई ठौर जिस पर छाँह हो।<br>कौन आँके मोल राह। जब उस के शोध का<br>ओर मूल्य के भी मूल्य थे हम, एक संवेदना की जो थाह पाने<br>डोर एक मरुबाँधती थी हमें—तुम को : और हम-सागर उलीच रहा अकेला ?<br>तुम मानते थे जल जहाँ है नहीं<br>डोरियाँ कच्ची भले हों, सूत क्योंकि क्या वह अब्धि पुनीत है ?<br>, उन से बँधे रेत क्या<br>उपलब्धि है ?<br><br>सरकार आयेंगे चले
बड़ी लम्बी राह। जब उस राह ! अब इस ओर<br>पर थे हम, एक संवेदना की डोर<br>आरियाँ ही बाँधती थी हमें—तुम को मुझे तुम से काटती हैं : और फिर लोहू-सनी उन धारियों में और राहों की अथक ललकार है। और वे सरकार ? कितनी बार हम-तुम मानते थे<br>और जायेंगे छले ! डोरियाँ कच्ची भले हों, सूत क्योंकि <br>बड़ी लम्बी राह : आँख-कोरों से लगा करपुनीत हैओठ के नीचे-मुड़े कोने तलक, उन से बँधे<br>तेज़ाब-आँकीसरकार आयेंगे चले<br><br>एक बाँकी रेख :‘नहीं जिस से अधिक लम्बी, अमिट या कि अमोघ
बड़ी लम्बी राह ! अब इस ओर पर<br>विधि की लेख न देखो लौट कर पीछेसंवेदना की आरियाँ ही<br>भृकुटि मत कसो, मत दो ओट चेहरे को,मुझे तुम चोट से काटती हैं :<br>मत बचो; अनुभव डँसे;न पूछो और फिर लोहू-सनी उन धारियों में<br>कौन पड़ाव अब कब आएगा?और राहों की अथक ललकार है।<br>और वे सरकार ? कितनी बार हमतेज़ाब जब चुक जाएगा-तुम और जायेंगे छले थम जाएँगे, सब यन्त्र; कारोबारअपने-आप सब रुक जाएगा'''नयी दिल्ली (वाक् कार्यालय, सुन्दर नगर), 22 सितम्बर, 1958'''<br/poem>
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